श्री रामायण मंथन
॥ चौपाई ॥
॥ दोहा ॥
भावार्थ —वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है। जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—चारों फल पा जाते हैं।
भावार्थ—इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है।
श्री रामायण मंथन—प्रसंग आरंभ
तीर्थराज प्रयाग और सत्संग महिमा—
श्री रामचरितमानस के अरण्य कांड में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्संग की महिमा को तीर्थराज प्रयाग के माध्यम से अलौकिक रूप में प्रकट किया है। इस प्रसंग में तुलसीदास जी ने तीर्थराज प्रयाग को संत समाज के प्रतीक रूप में स्थापित किया है। यहाँ यह बताया गया है कि संत समाज का संग ही वह अलौकिक तीर्थ है, जहाँ साधारण मनुष्य भी असाधारण आत्मिक उपलब्धियों को प्राप्त कर सकता है। प्रस्तुत व्याख्यान में हम इस प्रसंग को अंगों में विभाजित कर इसकी गहराई और महत्व को समझने का प्रयास करेंगे।
1. तीर्थराज का अलौकिक स्वरूप—
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि संत समाज रूपी तीर्थ अलौकिक और अकथनीय है। इसका प्रभाव तत्काल दृष्टिगोचर होता है। जैसे गंगा में स्नान करने से बाह्य शुद्धि होती है, वैसे ही संत समाज में प्रवेश करने मात्र से अंतःकरण पवित्र हो जाता है।
संत समाज को ‘तीर्थराज’ कहने का कारण यह है कि जैसे तीर्थराज प्रयाग तीन नदियों (गंगा, यमुना और सरस्वती) का संगम है, वैसे ही संत समाज तीन गुणों (सत, रज, तम) का समन्वय कर आत्मा को शुद्ध करता है। यह तीर्थ न केवल बाहरी जीवन को बल्कि आंतरिक चेतना को भी शुद्ध करता है।
उदाहरण के लिए, परमसंत श्री कबीर साहिब जी ने भी कहा है—
2. संत समाज में प्रवेश का फल—
जो व्यक्ति संत समाज रूपी तीर्थ का महत्व समझते हैं और इसमें भावपूर्वक डुबकी लगाते हैं, वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। संतों की संगति से मनुष्य के मन की अशांति समाप्त हो जाती है और उसे अपने जीवन का उद्देश्य स्पष्ट दिखने लगता है।
संत समाज में प्रविष्ट होकर मनुष्य को जो चार फल प्राप्त होते हैं, उन्हें हम इस प्रकार समझ सकते हैं—
1. धर्म—मनुष्य सत्य, अहिंसा, करुणा और अन्य नैतिक गुणों को अपनाता है।
2. अर्थ—सही मार्ग से संपत्ति अर्जित करता है।
3. काम—अपनी इच्छाओं को नियंत्रित कर उन्हें सही दिशा देता है और उचित इच्छा की पूर्ति करता है।
4. मोक्ष—जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम शांति प्राप्त करता है।
उदाहरण स्वरूप, राजा परीक्षित ने शुकदेव जी के सत्संग के माध्यम से मोक्ष प्राप्त किया। उनके जीवन में सत्संग ही तीर्थराज बनकर आया।
3. सत्संग और कौए का कोयल बनना—
संत समाज में डुबकी लगाने का फल तुरंत मिलता है। जैसे कौआ कोयल बन जाता है और बगुला हंस बन जाता है, वैसे ही साधारण मनुष्य संतों की संगति में असाधारण बन जाता है। यह बदलाव केवल बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक होता है।
सत्संग को आत्मा का दर्पण कहा गया है। जब आत्मा इस दर्पण में झाँकती है, तो अपने असली स्वरूप को पहचानती है। कौआ और कोयल का उदाहरण यह समझाने के लिए दिया गया है कि सत्संग से आंतरिक परिवर्तन होता है, जो देखने में चमत्कारी प्रतीत होता है।
उदाहरण के लिए, वाल्मीकि जी को संत नारद जी का सत्संग प्राप्त हुआ, जिससे एक साधारण वनवासी ब्रह्मनिष्ठ महर्षि बन गया।
4. सत्संग की महिमा छिपी नहीं है—
यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे कि संत समाज में प्रवेश करने से इतने चमत्कारिक परिवर्तन होते हैं। सत्संग की महिमा तो सनातन सत्य है, जिसे प्रत्येक युग में स्वीकारा गया है।
संत समाज की सूर्य की किरणों से तुलना की जा सकती है। सूर्य की किरणें जैसे अंधकार को दूर करती हैं, वैसे ही सत्संग अज्ञानता का नाश करता है।
एक अन्य उदाहरण में ध्रुव का नाम आता है, जो महर्षि नारद के मार्गदर्शन से बालक से महान् तपस्वी बन गया। यह सत्संग का ही प्रभाव था।
5. व्यावहारिक शिक्षा और वर्तमान समय में सत्संग का महत्व—
यह प्रसंग वाणी हमें यह सिखाती है कि तीर्थ केवल भौतिक स्थानों पर जाने से प्राप्त नहीं होता। सच्चा तीर्थ संत समाज है, जहाँ मनुष्य को आत्मिक मार्गदर्शन मिलता है।
वर्तमान समय में सत्संग—
आज के युग में, जब मनुष्य भौतिकता और अशांति में फंसा हुआ है, सत्संग की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। सत्संग से ही मनुष्य अपने जीवन को सही दिशा दे सकता है।
उदाहरण के लिए, विभिन्न योग शिविरों और आध्यात्मिक संगठनों द्वारा सत्संग के माध्यम से लाखों लोगों ने अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन किए हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा इस प्रसंग में संत समाज को तीर्थराज की उपमा देना अद् भुत है। यह प्रसंग हमें यह समझाने का प्रयास करता है कि सच्चा सुख और शांति केवल संतों की संगति में ही संभव है। संत समाज रूपी तीर्थ में डुबकी लगाने से व्यक्ति का अंतःकरण शुद्ध हो जाता है और वह जीवन के चारों पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार, यह प्रसंग हमें सत्संग की महिमा और उसके अद् भुत प्रभावों का बोध कराता है। ‘सत्संग’ वह अमूल्य खज़ाना है, जो जीवन के अंधकार को प्रकाश में बदल सकता है।
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मुद मंगलमय संत समाजू ।
जो जग जंगम तीरथराजू ॥
श्री रामचरितमानस की यह चौपाई संतों के समाज की महिमा का वर्णन करती है। इसमें संत समाज को आनंद और कल्याण का स्रोत बताया गया है। संतों का समाज वह पवित्र स्थल है, जो जगत् में चलते-फिरते तीर्थराज प्रयाग के समान है, जो सदैव सुख-शान्ति प्रदान करने वाले पवित्र विचारों को सब ओर फैलाता है।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में तीर्थराज प्रयाग को पवित्रतम स्थान माना गया है, जहाँ तीन नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है। इसी तरह, संतों का समाज भी तीन महत्वपूर्ण गुणों—ज्ञान, भक्ति और सेवा का संगम स्थल है।
संत समाज को ‘जंगम तीर्थराज’ कहा गया है, जिसका अर्थ है कि यह तीर्थ किसी एक स्थान पर सीमित नहीं है, बल्कि जहाँ-जहाँ संतगण जाते हैं, वहाँ पवित्रता और आनन्ददायक भावनाओं का संचार करते हैं। संतों का आचरण, वचन और उनके विचार समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत होते हैं। अतः उनके द्वारा सदा जीवों का कल्याण होता है।
तीर्थराज प्रयाग की इस उपमा के माध्यम से, सन्त तुलसीदास जी ने यह बताया है कि संतों का संग समाज को उसी प्रकार शुद्ध और पवित्र बनाता है, जैसे तीर्थ यात्रा से व्यक्ति के पापों का नाश होता है। संत समाज में प्रेम, शांति और आनंद का वातावरण होता है, जो मानव जीवन को मंगलमय बनाता है। इस प्रकार, संत समाज को चलायमान तीर्थराज के रूप में सम्मानित किया गया है, जो हर जगह पवित्रता और कल्याण का संदेश फैलाता है।
॥ चौपाई ॥
भावार्थ—संत समाज रूपी प्रयागराज में राम- भक्ति रूपी गंगा जी की धारा है और ब्रह्म विचार का प्रचार सरस्वती जी हैं। विधि और निषेध कर्म कथा (करने योग्य और न करने योग्य कर्मों का वर्णन) कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्य पुत्री यमुना जी हैं और भगवान की कथाएँ त्रिवेणी के रूप में सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याण को देने वाली हैं।
॥ चौपाई ॥
भावार्थ—संत समाज रूपी प्रयागराज का वर्णन चल रहा है। संत तुलसीदास जी आगे फ़रमाते हैं कि अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, हर समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो जाता है, इसका आदरपूर्वक सेवन करने से सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं।
संसार में तीन प्रकार के तीर्थ कहे गए हैं—
1. मुकामी तीर्थ (स्थायी तीर्थ)—मुकामी तीर्थ उन स्थलों को कहते हैं जो स्थानिक रूप से पवित्र माने जाते हैं। ये स्थल ब्रह्मर्षियों अथवा सन्त महापुरुषों द्वारा स्थापित किए गए किसी विशेष भू-भाग, नदी, पर्वत या अन्य प्राकृतिक स्थान पर स्थित होते हैं, जैसे हरिद्वार, वाराणसी, प्रयाग आदि। इन तीर्थों का महत्व धार्मिक, ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दृष्टि से होता है। लोग इन स्थलों पर तीर्थ यात्रा करने जाते हैं और पवित्र स्नान, पूजा-पाठ, सत्संग कथाएँ एवं अन्य धार्मिक क्रियाएँ करते हैं ताकि वे अपने पापों को नष्ट कर सकें और मोक्ष प्राप्त कर सकें। यह ‘स्थायी’ तीर्थ इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि ये एक निश्चित स्थान पर स्थित होते हैं और सदियों से श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र रहे हैं।
2. जंगम तीर्थ (चलता फिरता तीर्थ)—जंगम तीर्थ का अर्थ है—‘चलता-फिरता तीर्थ’। इस अवधारणा का तात्पर्य है कि सच्चे साधक या महापुरुष जहाँ भी जाते हैं, वहाँ एक तीर्थ की स्थापना होती है। ऐसे संत, महात्मा या गुरुओं का जीवन और उपस्थिति स्वयं में एक तीर्थ मानी जाती है। जंगम तीर्थ का दर्शन करने का लाभ यह है कि हमें आत्म-ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी विशेष स्थान पर जाने की आवश्यकता नहीं होती; बल्कि ऐसे महापुरुषों के सान्निध्य में ही वह पवित्रता, शांति और ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है, जो किसी स्थायी तीर्थ स्थल पर होती है।
3. यौगिक तीर्थ—सन्त महापुरुष अथवा ब्रह्मनिष्ठ योगी पुरुषों द्वारा बताई गई साधना से मनुष्य के घट में यह तीर्थ प्रकट होता है। यह यौगिक तीर्थ एक आंतरिक अवस्था है, जो योग और ध्यान के माध्यम से प्राप्त होती है। यह अवस्था वह अवस्था है, जब साधक अपनी साधना के माध्यम से अपने भीतर की ऊर्जा और चेतना को एक केंद्र बिंदु पर एकत्रित करता है। योगी के लिए, शरीर ही उसका तीर्थ होता है और उसकी साधना उस तीर्थ की यात्रा। इस यात्रा के दौरान साधक अपनी इड़ा (चंद्र नाड़ी), पिंगला (सूर्य नाड़ी) और सुषुम्ना (मध्य नाड़ी) नाड़ियों को सक्रिय करता है और उनमें सामंजस्य स्थापित करता है। जब इन तीनों नाड़ियों का संगम होता है, तो साधक को अपने भीतर ही दिव्यता का अनुभव होता है।
घट तीर्थ (ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का संगम)—उक्त यौगिक तीर्थ ही घट तीर्थ है। इसका तात्पर्य भी हमारे शरीर के भीतर का वह पवित्र स्थल है; जहाँ इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों का मिलन होता है। ये तीनों नाड़ियाँ योग शास्त्र के अनुसार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इड़ा नाड़ी चंद्र ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है और मन की शांति, शीतलता और विश्राम का प्रतीक है। पिंगला नाड़ी सूर्य ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है और शरीर की सक्रियता, ऊर्जा और जागरुकता का प्रतीक है। सुषुम्ना नाड़ी इन दोनों नाड़ियों के बीच स्थित होती है जो चेतना की ऊर्ध्वगामी यात्रा का मार्ग है।
जब साधक अपने सुमिरण-ध्यान के अभ्यास द्वारा इन तीनों नाड़ियों को संतुलित कर लेता है, तो उसे घट (शरीर) के भीतर ही ब्रह्मांडीय ऊर्जा का अनुभव होता है, जो कि परमात्मा का साक्षात्कार है।
इन सभी तीर्थों की अवधारणाएँ हमें यह बताती हैं कि सच्चे अर्थ में तीर्थों की यात्रा केवल बाहरी यात्रा नहीं है, बल्कि यह हमारे भीतर की यात्रा है, आत्मा की यात्रा है और अपने आप को जानने का माध्यम है। उक्त प्रसंग में अवलोकन कीजिए—
संत समाज तीर्थ—
सन्त तुलसीदास जी ने संत समाज को चलते-फिरते तीर्थराज प्रयाग के रूप में वर्णित किया है।
राम-भक्ति रूपी गंगा—
संत समाज में राम-भक्ति गंगा की धारा के समान है, जो निर्मलता और पवित्रता प्रदान करती है।
ब्रह्म विचार का प्रचार—
सरस्वती जी की तरह, संत समाज में ज्ञान और विचार का प्रचार-प्रसार होता है। संत समाज में ब्रह्म विचार की महिमा को प्रमुखता से रखा जाता है।
कलियुग के पापों का नाश—
सूर्य की पुत्री यमुना की तरह संत समाज में करने योग्य कर्मों की कथा वर्णित होती है, जो कलियुग के पापों का नाश करती है।
अक्षयवट—
धर्म निष्ठा का प्रतीक है। भक्त का धर्म में अचल विश्वास ही अक्षयवट के समान है, जो कभी समाप्त नहीं होता।
अब हम मुख्य मुद्दे पर आते हैं—मुद मंगल। यह मुद मंगल हर प्राणी मांगता है। यह हर किसी की सहज स्वाभाविक इच्छा है कि वह आनंद और कल्याण सदा ग्रहण करता रहे। यह शब्द हमें जीवन में सुख, शांति और समृद्धि के मूल तत्वों की ओर इशारा करता है।
इसे और गहराई से समझें तो ‘मुद’ का तात्पर्य है आनंद, हर्ष और खुशी। यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति आंतरिक और बाह्य रूप से प्रसन्न रहता है। जब मनुष्य के भीतर आनंद होता है, तो वह अपने आसपास के वातावरण को भी सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।
‘मंगल’ का अर्थ है कल्याण। यह वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति का जीवन सुखी, शांतिपूर्ण और समृद्ध होता है। मंगलमय जीवन का मतलब है हर कार्य में सफलता, परिवार में शांति और समाज में समृद्धि का वास।
जब ‘मुद’ और ‘मंगल’ एक साथ आते हैं, तो यह जीवन की उस आदर्श स्थिति को दर्शाता है, जहाँ व्यक्ति न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में खुश रहता है, बल्कि समाज और संसार के लिए भी कल्याणकारी कार्य करता है। संत समाज को ‘मुद मंगलमय’ कहा गया है क्योंकि संतों की संगति से व्यक्ति को आंतरिक शांति और बाहरी कल्याण दोनों प्राप्त होते हैं।
कहानी (मुद मंगलमय संत की संगति)—
एक छोटे से गाँव में रामदास नाम का एक किसान रहता था। उसकी खेती अच्छी चल रही थी, परिवार भी सुखी था, परंतु उसे हमेशा एक खालीपन महसूस होता था। एक दिन उसने सुना कि पास के जंगल में एक संत पधारे हैं, जिन्हें लोग ‘मुद मंगलमय संत’ कहते थे। अपनी आन्तरिक जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह उनके दर्शन के लिए गया।
संत ने उसे देखकर मुसकराते हुए कहा, ‘बेटा, केवल अपनी खुशी में ही मग्न मत रहो, जीवन का असली आनंद दूसरों की सेवा और कल्याण में है।’ रामदास ने संत के विचारों को गहराई से सुना।
संत की संगति में कुछ दिन बिताने के बाद, रामदास ने गाँव लौटकर निर्धन किसानों की सहायता करना शुरु किया। उसने अपनी फसल का एक भाग गरीबों को दान दिया और उनकी समस्याओं को सुलझाने में मदद की। धीरे-धीरे, रामदास के मन की समस्त इच्छाएँ शान्त हो गईं।
रामदास अब न केवल स्वयं खुश था, बल्कि दूसरों के लिए भी मंगलकारी बन गया था। संत का संदेश उसके जीवन का मार्गदर्शन बन गया। वास्तव में ‘मुद मंगलमय’ का अर्थ उसने अपने जीवन में अनुभव कर लिया था।
अगस्त 2025
( साधक की तितिक्षा )
॥ चौपाई ॥
साधु चरित सुभ चरित कपासू ।
निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा ।
बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥
भावार्थ—संतों का चरित्र कपास के समान उज्ज्वल होता है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। कपास की डोडी नीरस होती है, संतों के चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं होती, इसलिए वे भी नीरस होते हैं, कपास उज्ज्वल होता है, संतों का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संतों का चरित्र भी सद् गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है। जैसे कपास का धागा सुई में किए हुए छेद को अपना तन देकर ढक देता है अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढकता है, उसी प्रकार संत भी स्वयं दुःख सहकर दूसरों के दोषों को ढकते हैं, जिसके कारण उन्हें जगत् में वंदनीय यश प्राप्त हुआ है।
इस लेख में संतों के चरित्र, समाज और उनके आचरण की महिमा का वर्णन किया गया है, जो जनमानस के लिए प्रेरणादायक और अनुकरणीय है।
संतों का समाज में महत्व—
संतों का चरित्र समाज के लिए सदैव आदर्श रहा है। उनके जीवन की सादगी, सेवा और सत्यनिष्ठा मानवता को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है। तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ में संतों की महिमा को अत्यधिक महत्व दिया है। उनके अनुसार, संतों का चरित्र कपास की भाँति पवित्र और समाज के लिए कल्याणकारी होता है।
संतों का चरित्र—(कपास का प्रतीक)
संत तुलसीदास जी संतों के चरित्र की तुलना कपास के साथ करते हैं। कपास की भाँति, संतों का जीवन भी नीरस, विशद और गुणमय होता है।
· नीरसता का अर्थ—जैसे कपास का फल नीरस होता है, वैसे ही संतों का जीवन भौतिक इच्छाओं और तृष्णाओं से रहित होता है। वे विषयासक्ति से दूर रहते हैं और उनका उद्देश्य केवल आत्मिक उन्नति और दूसरों की सेवा होता है।
· विशदता का अर्थ—संतों का हृदय अज्ञान और पाप से रहित होता है, जैसे कपास की सफेदी। उनका जीवन सादगी और पवित्रता का प्रतीक है।
· गुणमयता का अर्थ—कपास में गुण होते हैं (तंतु) जिनसे वस्त्र बनते हैं। उसी प्रकार, संतों के जीवन में अनेकों सद् गुण होते हैं, जो समाज के लिए उपयोगी और कल्याणकारी हैं।
· संतों की विशेषता—दूसरों के दोषों को ढकना संतों का सबसे बड़ा गुण है। जैसे कपास अपने मूल रूप को त्यागकर, काट पीट सहन कर सुई के द्वारा किए हुए छेद से वस्त्र बनकर मनुष्य के तन को ढक देता है, वैसे ही संत अपने व्यक्तिगत दुखों को सहकर भी दूसरों के दोषों को माफ करते हैं और उन्हें उभारने के बजाय सुधारने का प्रयास करते हैं।
उपसंहार—(जीवन का सार)
संत समाज से प्राप्त उपदेश, सत्संग और साधना का फल जगत् के किसी भी अन्य आनंद या सुख से बढ़कर होता है। संतों का संग जीवन को सही दिशा में ले जाने वाला है। संतों का चरित्र और समाज सदैव अनुकरणीय है और उनका सान्निध्य जीवन को पवित्रता और शांति से भर देता है।
दृष्टांतों द्वारा स्पष्टता—
संत तुलसीदास जी का जीवन एक महान् प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने रामायण को अवधी भाषा में ‘रामचरितमानस’ के रूप में लिखा, जो आम जनता के लिए भगवान राम की कथा को सुलभ और सहज रूप में प्रस्तुत करता है। तुलसीदास जी के जीवन से हमें कई महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं—
1. धैर्य और दृढ़ संकल्प—
तुलसीदास जी का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था। वे बालपन में ही अनाथ हो गए थे। यौवनकाल में पत्नी रत्नावली के कथन से वे वैराग्य की ओर प्रेरित हुए और उन्होंने अपना जीवन भगवान राम की भक्ति में समर्पित कर दिया। उनकी साधना, तपस्या और रामभक्ति ने उन्हें समाज के लिए एक आदर्श संत बना दिया।
2. भक्ति और समर्पण—
तुलसीदास जी की भक्ति का आदर्श यह है कि उन्होंने भगवान राम को अपना सर्वस्व मान लिया। उनकी लेखनी में भक्ति की गहराई और प्रेम की तीव्रता झलकती है, जो हमें यह सिखाती है कि ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति और समर्पण से ही मनुष्य को आंतरिक शांति और आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति होती है।
3. निरहंकारिता और विनम्रता—
तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों में स्वयं को एक साधारण भक्त के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने कभी भी अपने ज्ञान या लेखन का अहंकार नहीं किया। उनकी रचनाओं में विनम्रता और निष्ठा का भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जो हमें यही सिखाता है कि सच्चा ज्ञान और भक्ति विनम्रता से ही पूर्ण होती है।
4. सहिष्णुता और समानता का भाव—
तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ में निषादराज भील, केवट का प्रेम, वनवासी भील समाज, शबरी भीलनी आदि के प्रसंगों में सामाजिक समानता और मानवता के मूल्यों पर ज़ोर दिया। उन्होंने जाति-पाति, ऊँच-नीच के भेद भाव को समाप्त करने की बात कही। उनके विचार हमें सिखाते हैं कि सभी मनुष्यों को समान दृष्टि से देखना चाहिए और समाज में प्रेम, भाईचारे और एकता को बढ़ावा देना चाहिए।
5. निरंतर साधना का महत्व—
तुलसीदास जी ने अपने जीवन में निरंतर साधना और अभ्यास किया। उन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी अपनी साधना नहीं छोड़ी। इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास, धैर्य और समर्पण आवश्यक है।
संत तुलसीदास जी के जीवन से हमें सीख मिलती है कि ईश्वर की भक्ति में ही सच्चा सुख और शांति है और इसके लिए हमें अपने अहंकार को त्यागकर प्रेम, विनम्रता और समानता के मार्ग पर चलना चाहिए। उनका जीवन एक प्रकाश स्तम्भ के समान है, जो हमें सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है।
निष्कर्ष—
संतों का जीवन, उनका चरित्र और समाज हमेशा से प्रेरणादायक रहे हैं। तुलसीदास जी द्वारा ‘रामचरितमानस’ में किया गया संतों का वर्णन हमारे लिए एक मार्गदर्शक है। हमें संतों के गुणों को अपने जीवन में अपनाकर समाज को एक नई दिशा प्रदान करनी चाहिए।
इस लेख से हम यह सीख सकते हैं कि संतों का चरित्र, समाज के लिए प्रेरणा स्रोत है और उनका संग हमेशा से सुख और शांति का कारण रहा है।
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