श्री अमर ज्योति दर्शन

 श्री अमर ज्योति दर्शन

सितम्बर 2025

अतः आपने श्रीमान जी की विनय पर फ़रमाया—“हमारी मौज भी यही है कि आप श्री प्रयागधाम में एक मास रहें। हमने महापुरुषों के पावन चरित्र का संकलन किया एवं करवाया है। आप उसे अब पढ़ें और उसमें कुछ संशोधन करना चाहें तो वह भी कर दें। महात्मा योग रोशनानन्द जी आपके पास आएँगे, उन्हें सब समझा देना। आप श्री द्वितीय पादशाही जी के समय से महापुरुषों के सान्निध्य में हैं, यदि कुछ और लिखवाना चाहें, तो लिखवा सकते हैं।

श्रीमान जी के पास महात्मा जी प्रथम दिन ग और उन्होंने श्री परमहंस महान विभूतियों के पावन चरित्र आरम्भ करने से पहले के शीर्षक पढ़ने आरम्भ कि श्रीमान जी ने कहा—“महात्मा जी ! सच ही तो है कि कुदरत की ओर से जिस कार्य को सम्पन्न करने का श्रेय जिसे दिया जाता है, समस्त दैवी शक्तिया उसकी सहयोगी बन जाती हैं। अब हमें भी इस सेवा का सौभाग्य मिला है, हमारे अहोभाग्य !

इस प्रकार एक मास तक नित्यप्रति उत्साहपूर्वक महापुरुषों के प्रवचन एवं लीला श्रवण कर श्री आज्ञा का पालन किया। उस समय उनके मन में अथाह भाव उमड़-घुमड़ कर आते, जो उन्होंने श्री आनन्दपुर में आकर सब प्रबन्धकों के सामने प्रकट कि

दिसम्बर सन् 1971 में श्री गुरु महाराज जी ने श्री सन्तनगर से श्री आनन्दपुर में कृपा फ़रमाई अब तक श्री चतुर्थ पादशाही जी महाराज का पावन चरित्र लगभग पूरा लिखा जा चुका था। श्री पंचम पादशाही जी महाराज के अन्तर्मानस में मौजों का अथाह सागर उमंगें भर रहा था। उनकी यह प्रबल मौज थी कि इसका स्वरूप शीघ्र ही सबके सम्मुख प्रकट किया जा माघी के पर्व पर सत्संगी महात्माजन श्री दर्शन के लि चुके थे। मोती बाग में अभी कच्चे कमरे का निर्माण हुआ था।

आपने महात्मा योग आत्मानन्द जी, महात्मा द्गुरु सेवानन्द जी, महात्मा गुरु दर्शनानन्द जी, महात्मा आत्म दर्शनानन्द जी, महात्मा परम विवेकानन्द जी, महात्मा अखण्ड प्रकाशानन्द जी, महात्मा धर्म श्रद्धानन्द जी, महात्मा रोशनानन्द जी, महात्मा योग प्रकाशानन्द जी अन्य प्रमुख महात्माजनों को बुलवाकर वचन फ़रमा—“हमने  श्री परमहंस दयाल जी की श्री मौज अनुसार श्री परमहंस अद्वैत मत के शाश्वत ज्योतिस्स्तम्भ महान विभूतियों का पावन चरित्र लिपिबद्ध किया है। अब आपके सहयोग से यह कार्य पूर्ण होना है। आप सब मिलकर मोती बाग के कमरे में इसको सुनें और जो कमिया हों, उन्हें ठीक करवा दें। यह कार्य अति शीघ्र करना है ताकि यह वैशाखी तक छपकर सबके सामने प्रकट हो सके।

विलक्षण ! विलक्षण ! द्भुत ! महान आश्चर्य ! श्री परमहंस अद्वैत मत श्री आनन्दपुर सत्संग केन्द्र की ऐतिहासिक गौरवशाली स्वर्णिम उपलब्धि ! इसकी महिमा के लि कोई शब्द ही नहीं जिसे जिह्वा कहकर सुना सके। श्री द्गुरुदेव  जी महाराज ! आपके इस दिव्य अलौकिक कार्य की सम्पन्नता पर सभी महापुरुषों, हम सेवकों एवं श्री परमहंस अद्वैत मत की संस्था को गर्व है”—ऐसा कहकर श्रीमान जी ने सभी महात्माजन सहित दण्डवत् प्रणाम किया। बाकी महात्माजनों यह सोचकर हैरान थे कि ऐसी क्या महान उपलब्धि है; अभी कुछ सामने प्रकट तो हुआ नहीं। श्रीमान जी चूँकि इसका अध्ययन कर चुके थे, अतः उनके हार्दिक एवं आन्तरिक द्गारों ने सबके सामने इस रहस्य को दर्शा दिया।

श्री आज्ञा अनुसार सभी महात्माजनों ने पावन चरित्र को सुनने का कार्य आरम्भ किया। प्रत्येक दिन श्रीमान जी एवं महात्मा योग प्रकाशानन्द जी श्री प्रभु जी के चरणों में जाते और गुणावली का बखान करते। श्री वचन हु कि इस संस्करण में उपयुक्त स्थान पर इस महिमा को लिख देते हैं, शेष पर पुन: विचार किया जागा। इस प्रकार आरम्भ से लेकर श्री चतुर्थ पादशाही जी महाराज तक लेखन कार्य पूर्ण हो चुका था। शेष श्री द्गुरुदेव जी महाराज ने रेखांकित कर समझा दि आपने श्रीमान जी और महात्मा धर्म श्रद्धानन्द जी को फ़रमाया किआप कुछ दिन यहाँ रहकर इसके शेष भाग की रचनाओं को सुनें और उनका उचित स्थान पर समावेश करें। इसे अब आपने पूरा करना है। पुनः श्रीमान जी को सम्बोधित करते हु फ़रमाया किआपको यहाँ कुछ अधिक समय तक रहकर इसे छपवाना भी होगा।

श्री द् गुरुदेव जी महाराज ने सभी महात्माजनों को बुलाकर उन्हें इस महान कार्य को मार्च तक पूर्ण करने का आशीर्वाद दिया और फ़रमाया—“यह कार्य गुरुमुखों के अदम्य साहस एवं हार्दिक लगन से पूर्ण होगा। इसे हित-चित् से करके अपने जीवन को खुशियों से भरपूर करें और महापुरुषों की प्रसन्नता को प्राप्त करें।

29 जनवरी सन् 1972 को श्री गुरु महाराज जी ने श्री प्रयागधाम के लि प्रस्थान किया। प्रथम कोटा में महात्मा सुख सागरानन्द जी के सत्संग आश्रम पर श्री दर्शन एवं द्घाटन का कार्यक्रम था। उधर प्रात: दस बजे के लगभग जब श्रीमान जी एवं महात्माजन लिपिबद्ध की गई रचनाओं को श्रवण करने के लि तो सम्पूर्ण ग्रंथ को छपवाने सहित देखकर कहने लगे—“इतना बड़ा काम इतनी छोटी-सी अवधि में कैसे पूरा हो सकता है ? यह हमारी सामर्थ्य से बाहर है। इतना बड़ा काम तभी सम्पन्न हो सकता है, जब स्वयं श्री गुरु महाराज जी यहाँ रहें वरन् यह कार्य तो एक वर्ष में भी हो पाना कठिन है। ग्रन्थ की छपाई के लि अक्षर आनन्द-सन्देश से बड़ा होना चाहि जो अभी उपलब्ध ही नहीं है।

श्रीमान जी ने दो गुरुमुखों को कोटा भेजकर अक्षर आदि के लि सब विनय भेज दी। इधर लेखक के मन में यह विचार आया कि क्या श्री गुरु महाराज जी की मौज अब पूर्ण नहीं हो पागी ? उसने अपनी विनय पत्रिका श्री चरणों में भिजवा दी। गुरुमुखों को जब श्री दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो उन्होंने विनय पत्रिका भेंट कर श्रीमान जी द्वारा पसन्द कि अक्षर इत्यादि दिखाए श्री वचन हु कि आप आशीर्वाद पत्र ले जाएँ और श्रीमान जी को सौंप दें

श्रीमान जी के कृपा पत्र में लिखा—“श्रीमान जी ! हमने आपसे पूरा छपा हुआ ग्रन्थ लेना है। फिर आप जैसे और जिस प्रकार के अक्षर भी प्रयोग करें, पूर्ण व्यवस्था कर इस सेवा के कार्य की पूर्ति करनी है। सब प्रेस से सेवा करने वाले गुरुमुखों एवं श्री आनन्दपुर निवासी गुरुमुखों को आशीर्वाद।

दूसरी ओर लेखक को भी कर कमलों से कृपा पत्र लिखकर आशीर्वाद फ़रमाया श्री वचन लिखेआप तसल्ली रखें और अपना कार्य उत्साहपूर्वक करते जा किसी प्रकार से घबराने की ज़रूरत नहीं है। सब काम श्री गुरु महाराज जी की कृपा से ठीक हो जागा।

Trust in God and do the right.

God helps those who help themselves.”

 

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अगस्त 2025  

    आप स्वयं इन अमृत-कुण्डों के निर्माण के समय यहाँ आकर विराजमान होते। साथ में कुछ महात्माजन एवं भक्तजन भी आते। आप प्रायः महापुरुषों के उपकारों का वर्णन करते हुए भाव विभोर हो जाते। इस महान् स्थान की महिमा का गायन करते हुए इसकी रूप रेखा एवं भव्य भवन का चित्र सबके सम्मुख प्रकट करते। श्री चरणों में खड़े हुए महात्माजन आश्चर्यचकित होकर यही कहते कि सचमुच धुरधाम के वासी धुर के संदेश को लेकर अवतार धारण करते हैं, परन्तु सदैव इस रहस्य को गुप्त रखते हैं। उस समय श्री स्वामी विचार पूर्णानन्द जी ने श्री चरणों में विनय की कि प्रभो ! इन अमृत-कुण्डों का निर्माण कार्य तो पूर्ण हो गया है, अब इनका चरणामृत पान करवाकर शुभ मुहूर्त निज कर कमलों से करने की कृपा करें। श्री प्रभु जी ने आपकी और संकेत करते हुए गहन भाव से फ़रमाया कि शुभ मुहूर्त के इस कार्य को समय आने पर आप स्वयं पूरा कर लेना
    त्रिकालदर्शी महापुरुषों के रहस्य गुप्त रूप से भविष्य निधि बनकर रह जाते हैं। ज्योतिर्मय उपासना स्थल को भव्य रूप प्रदान करने के साथ-साथ आपने श्री परिसर के सारे फ़र्श पर संगमरमर लगवाया। दिवाकर और सुधाकर भी अपने-अपने समय पर उदय होकर इस स्थान को निर्मल ज्योत्सना से परिपूर्ण कर अपने भाग्य मनाते हैं।
    सारांश यह है कि ये सब स्थान—श्री परमहंस अद्वैत मन्दिर, श्री आनन्द शांति भवन, श्री आनन्द शांति धाम, श्री आनन्द अमृत कुण्ड; जो श्री आनन्दसर के अन्तर्गत हैं, ये सब ज्योतिर्मय उपासना स्थल हैं। श्री आनन्दसर इन स्थानों की सीमा बना हुआ है। अपनी लहरों से प्रमुदित कर श्री आनन्दपुर को तीर्थधाम बनाने के श्रेय को चरितार्थ कर रहा है। यहाँ श्रद्धालु प्रेमिजन पावन दर्शन, तीर्थ-स्नान, सत्संग तथा अध्यात्म-विद्या को प्राप्त करने की दृष्टि से आते हैं और अपने जीवन का सच्चा लाभ उठाते हैं।

महान् कृति
(अमर-ज्योति ग्रन्थ)

    करुणानिधान ! त्रिभुवन मोहन ! श्री परमहंस दाता दयाल जी श्री पंचम पादशाही जी की परमार्थ, भक्ति-प्रेम तथा निष्काम कर्म की सुगन्धि शीघ्रातिशीघ्र विश्व में सौरभ फैलाए, यही आन्तरिक चाहना थी। भक्ति की चौकुण्ठी में ध्वजा फहराए, जन-जन में आनन्द, सुख व शान्ति का सागर लहराए—इसे पूर्ण करने की मन में चाहना थी।
    इस महान् उपलब्धि में सर्वप्रथम श्री परमहंस विभूतियों के पावन चरित्र को श्रेय दिया गया। श्री परमहंस महान् विभूतियों के श्री प्रवचन, मधुर लीलाए एवं भक्ति परमार्थ पर चलने के लिए सहनशीलता, विनम्रता, अदम्य साहस के सजीव प्रमाण उनकी जीवन झलकियों में आत्म-आनन्द की अनुभूति कराते हैं। प्रेमी जिज्ञासु प्रेरणा पाकर निर्विघ्न आत्मिक उन्नति के पथ पर बढ़ते जाते हैं। मानव-जन्म के लक्ष्य की प्राप्ति कर जीवन को सरस एवं धन्य बनाते है।
    सृष्टि नियन्ता के अद् भुत विधानानुसार, कार्य की रूप रेखा के अनुसार उपयुक्त समय के लिए सभी साधन भी जुटा लिए जाते हैं। सन्त महापुरुषों की अनुकम्पा एवं परम्परा स्वयं में सर्वगुण सम्पन्न एवं अद्वितीय है, जो जीव बुद्धि से परे है। ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ इनके श्री चरणों की चेरी बन सेवा के लिए तत्पर रहती हैं। ये अपने लक्ष्य की ओर पर उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं तथा मानव जन्म के लक्ष्य की प्राप्ति कर जीवन को सरस एवं धन्य बनाते हैं।
    श्री परमहंस अद्वैत मत के उन्नायक श्री  परमहंस दयाल जी श्री प्रथम पादशाही जी एवं सभी महान् विभूतियों के पावन चरित्र का एक-एक शब्द भक्ति के मुक्ताकणों की आभा से ओत-प्रोत है। अमर ज्योति (ग्रन्थ) को खोलते ही आत्म-आनन्द की अनुभूति होती है एवं सुरति सच्चे सुख में लीन होकर मस्ती के नज़ारों में झूम जाती है। जब भी कभी जीवन में बाधाएँ, कठिनाइयाँ अथवा अवसाद के क्षण आए, महापुरुषों के जीवन चरित्र का अध्ययन एवं मनन ज्योतिस्स्तम्भ बन अपने आलोक द्वारा पथ-प्रदर्शन करता है। इसमें निहित ज्ञान की प्रखर किरणों से अज्ञान तिमिर लुप्त हो जाता है और जीव सरलता से उन परिस्थितियों में सुख-शान्ति का मार्ग पा लेता है।
    युग-युगान्तरों तक स्वर्णाक्षरों में महापुरुषों के पावन चरित्र का संकलन करने के लिए आपने अगस्त सन् 1970 में ही गुप्त रूप से इसका शुभ आरम्भ श्री आनन्दपुर में किया। ‘श्री परमहंस अद्वैत मत’ पचास पृष्ठों में छपा हुआ था। इसमें अधिकतर श्री आनन्दपुर की रचना को प्रमुखता दी गई थी। अब इसके माधुर्य और सौन्दर्य को विस्तार देना था। आपने आन्तरिक दृष्टि से कृपा करते हुए सेविका को बुलाया और फ़रमाया—हमें इस छोटी पुस्तक को ग्रन्थ के रूप में बढ़ाना है। यह कार्य अभी गुप्त रूप में करना है। महापुरुषों की महिमा अगम है, इसके कुछ अंश को समय आने पर प्रकट करेंगे।
    सेविका ने श्री आज्ञा को शिरोधार्य कर विनय की प्रभो ! इसे कैसे करना होगा ? गुरुवाणी, रामायण एवं अन्य किसी भी सन्त वाणी का मुझे कोई ज्ञान नहीं। श्री वचन हुए—श्री परमहंस दयाल जी की शक्ति से सब कार्य पूर्ण होगा। अगस्त सन् 1970 से दिसम्बर सन् 1971 तक परमार्थ को विकास रूप देते हुए एवं श्री प्रयागधाम, श्री सन्तनगर तथा श्री आनन्दपुर में निर्माण कार्य करवाते हुए लेखन के लिए अधिकाधिक समय देते। श्री मुख से प्रवचन फ़रमाते एवं परमहंसों के जीवन चरित्र की झाँकियों का वर्णन करते हुए स्वयं उनमें खो जाते। पुनः दूसरे दिन एक-एक शब्द को सुनते और उसमें सुधार करवाते। एक साधारण सेविका को लेखक का नाम देकर अनुगृहीत किया। लेखक की समझ में न आता कि कैसे सब प्रवचन एक-एक करके याद रहते हैं और कैसे रात्रि में आँखें बन्द कर सब वाणियों सहित संकलित हो जाते हैं। ऐसे महान् प्रभु का वरद् हस्त छत्र-छाया किए हुए था कि हर समय एक निराली मस्ती में लीन सुरति अपूर्व आनन्द की धुन में मग्न रहती। बस ! इतना ही पता चलता कि सेवा (लेखन) आरम्भ करते समय सूर्य की किरणें चहुँ ओर से आलोकित होकर लेखनी का कार्य पूर्ण कर जाती थीं।
    इस प्रकार नवम्बर सन् 1971 ईo में श्री चतुर्थ पादशाही जी महाराज का पावन चरित्र लिखना आरम्भ हुआ था। महात्मा सद् गुरु सेवानन्द जी को एक मास के लिए श्री प्रयागधाम में सेवा के लिए अन्तःप्रेरणा हुई। ये सत्संग कार्य भी करते थे एवं श्री आनन्दपुर में मुख्य प्रबन्धक भी थे। श्री सद् गुरुदेव जी महाराज (श्री पंचम पादशाही जी) की आन्तरिक मौज अब महापुरुषों के पावन चरित्र, जितने लिखे जा चुके थे, उन्हें प्रकट करने की थी।
करुणा के आगार प्रभुवर, श्री पंचम युग सम्राट ।
श्री परमहंस अद्वैत मत का, गौरव करें विराट
श्री परमहंस विभूतियों का जीवन चरित महान् ।
युग युगान्तर चौकुण्ठी में, अमर रहे यशोगान

                

जुलाई 2025 

महाप्रभु जी ने अपनी दिव्य वाणी में फ़रमाया—

            संसार में काल और माया का ऐसा चक्र चल रहा है कि जीव गफ़लत की निद्रा में सोकर अपने लक्ष्य को भूल ग हैं, जिसकी वजह से जन्म-जन्मांतरों से पीड़ित होते चले आ रहे हैं। जिनके पूर्बले संस्कार होते हैं, जिनमें अभिलाषा उत्कण्ठा होती है, वे अपनी निजी वस्तु को प्राप्त कर लेते हैं। वे अपनी खोई हुई वस्तु को पाकर जन्म सकारथ कर लेते हैं।

ऐसी पुण्य संस्कारी रूहों के लिए कुदरत की ओर से प्रबन्ध होता है। उन्हें सत् पथ दर्शाने के लिए समय-समय पर सत्पुरुषों का अवतरण होता है। सत्पुरुषों  का अवतरण महज इसी काम के लिए होता है। वे जिज्ञासु संस्कारी रूहों को निज घर पहुँचाने के लिए आते हैं ताकि आत्मा जो कुल मालिक से  बिछुड़ गई है, उसे सच्चा सुख मिल सके।

श्री आनन्दपुर दरबार में केवल नाम-भक्ति की दौलत ही बाँटी जा रही है। गुरुमुखजन अपनी श्रद्धा अनुसार यहाँ से अपनी झोलियाँ भर रहे हैं। जब से श्री आनन्दपुर दरबार की रचना हुई है, आप सब देख ही रहे हैं कि यह दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। श्री मदिर, श्री आनन्द शान्ति भवन, श्री आनन्द शान्ति  धाम—ये सब स्थान गुरुमुखों के लिए भक्ति प्राप्त करने के द्वार हैं। श्री शान्ति भवन इसलिए बना है ताकि गुरुमुख भजनाभ्यास से सुरति को मालिक से मिलाए जोकि विषय विकारों में फँसी है। जो नाम की माला को अपनी सुरति में धारण करेंगे, वे अपने मन को माया के गलबे से हटाकर मालिक के चरणों में सुरक्षित हो जाएँगे।

आप गुरुमुखों के अहोभाग्य हैं जो ऐसा सुअवसर मिला है। गुरुमुख सेवा, दर्शन व सत्संग से जीवन का कल्याण कर लेते हैं। गुरुमुखों के उद्धार के लिए ही इन सब स्थानों का निर्माण किया जाता है। इसलिए सबका कर्तव्य हो जाता है कि अधिकाधिक समय देकर भजन-ध्यान करें ताकि अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो। चाहे कोई श्री आनन्दपुर में रहने वाला है या कोई बाहर रहने वाला है, एक घण्टा भजनाभ्यास हर गुरुमुख के लिए अनिवार्य है। चौबीस घण्टों में से एक घण्टा अवश्य निकालें, इसमें गुरुमुखों की बेहतरी है और जीवात्मा का कल्याण है। महापुरुषों का भी यही उद्देश्य होता है कि गुरुमुख इस सुनहरी वक्त का पूरा-पूरा लाभ उठाएँ।

            पावन श्री वचन श्रवण कर सबका हृदय रोमांचित हो गया। सबने गुरु महिमा के गीत गाते हुए  श्री प्रभु जी का कोटि-कोटि आभार प्रकट किया। प्रसाद वितरण हुआ। शुभ मुहूर्त संपन्न होने के पश्चात् आप स्वयं भी यहाँ विराजमान रहे और सब गुरुमुखों को एक घंटा भजन करने की श्री आज्ञा  फ़रमाई। सबने श्री दर्शन-ध्यान करते हुए तेजोमयी प्रभा को अन्तर्मानस में भरते हुए शान्त एकान्त समय में उस आत्म-आनंद को पाया जिसे हज़ारों वर्षों की तपस्या करने पर भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।

श्री आज्ञानुसार यहाँ पर प्रातः सायं नियुक्त  सेवादार बाईयाँ श्री आरति-पूजा करती हैं। श्री परमहंस अद्वैत मन्दिर में श्री आरति पूजा की मधुरिम ध्वनि का सम्बन्ध यहाँ पर जुड़ा हुआ है, जिससे यहाँ पर बैठे हुए सभी प्रेमी तन्मय होकर हृदय में उल्लास भरते हैं। वे प्रेमी हैंबुज़ुर्ग माता अथवा लाचार-बीमार जो श्री मन्दिर में नहीं पहुँच पाते, यहाँ आकर श्री आरति-पूजा का लाभ उठाते हैं। इस शान्ति भवन का निर्माण हो जाने से गुरुमुख अधिकाधिक समय भजन-ध्यान में व्यतीत कर अपनी आत्मा का कल्याण करने लगे। ये महापुरुषों के जीवों पर अनन्त-अनन्त उपकार हैं। गुरुमुखजन यहाँ आकर अपनी सुरति को एकाग्र कर भजनाभ्यास का आनन्द लेते है।

श्री आनन्द अमृत कुण्ड

            श्री श्री 108 श्री सद् गुरुदेव जी महाराज श्री तृतीय पादशाही जी ने श्री प्रवचन फ़रमाए थे कि श्री परमहंस अद्वैत मन्दिर के चारों कोनों पर श्री आनन्द अमृत कुण्ड होंगे। इन श्री आनन्द अमृत कुण्डों में से सब लोग चरणामृत लेंगे और श्रद्धा एवं भक्ति से पूर्ण हो अपने जीवन का कल्याण करेंगे।

पावन प्रवचनों को साकार रूप प्रदान करने के लिए श्री श्री 108 श्री सद् गुरु दाता दयाल जी श्री पंचम पादशाही जी महाराज ने इन श्री आनन्द अमृत कुण्डों की 16 अक्टूबर सन् 1990 को पावन कर कमलों से नींव रखते हुए अमृत तुल्य श्री वचनों में फ़रमाया—

महापुरुषों की यह धुर दरगाही मौज थी कि श्री आनन्दसर के परिसर में श्री अमृत-कुण्डों का निर्माण किया जाए। आज उस मौज को पूर्ण करने के लिए इनकी नींव का मुहूर्त किया जा रहा है। थोड़े दिनों में ही इनका निर्माण कार्य पूर्ण हो जाएगा। बाईयों-भक्तानियों की ओर भी ये अति शीघ्र बनकर तैयार हो जाएँगे। इन अमृत-कुण्डों से लोग चरणामृत पान करके अपने तन-मन के रोग दूर करेंगे। तन-मन को स्वस्थ रखने वाली सबसे उत्तम और अचूक औषधि है श्री आनन्दपुर दरबार की सेवा’।

            श्री तृतीय पादशाही जी महाराज जो-जो सेवा फ़रमा गए हैं, यह समझो कि वह सेवा गुरुमुखों के कल्याण एवं उन्नति के लिए है। सही मायनों में ये सच्चा सुख और सच्चा आनन्द प्राप्त करने के साधन हैं। महापुरुष समयानुसार इस धराधाम पर आकर परमार्थ भक्ति का पथ दर्शाते हैं और गुरुमुखों को सदा-सदा के लिए सेवा की सच्ची दात को प्राप्त करने के साधन जुटाते हैं। गुरुमुख जन इस सेवा में अपना दिल लगाकर अपनी जीवात्मा का कल्याण कर लेते हैं, यही इस मानुष जन्म का लक्ष्य है। जो साधन बने हुए हैं, गुरुमुखजन इससे पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं।

             


जून 2025

 
            श्री शान्ति भवन कुछ वर्षो पश्चात् संगमरमर की शिलाओं से निर्मित हुआ। चारों ओर की गैलरी, बरामदे तथा प्रांगण व अन्य सभी आवश्यक स्थान भी भव्य नव्य रूप में रूपांतरित हो गए। एकान्त, प्रशान्त, सुरभित वायु युक्त वातावरण प्रेमी गुरुमुखों के हृदय में भजनाभ्यास के लिए उत्सुकता भरता है। यहाँ पहुँचते ही शान्ति एवं प्रफुल्लता अनुभव होने लगती है। दिव्य अलौकिक तेजपुंज मूर्तिमान श्री परमहंस दयाल जी की श्री छवि का ध्यान करते ही अन्तरात्मा परमात्मा में विलय होने का आभास देती है। जीव वास्तविक खुशियों को पाकर गदगद हो जाता है। भजनाभ्यास की संजीवनी से भव दुखों से त्राण मिलता है और काल-व्याल के भय से विमुक्त हो परम लक्ष्य को पाने में सफल हो जाता है। यह भवसागर का जहाज है। जो भी जीव श्रद्धा एवं निष्ठा से यहाँ बैठकर भजनाभ्यास एवं ध्यान करते हैं, उनके अन्तर के कपाट खुल जाते हैं और सुरति उच्च लोकों में विचरण करने लगती है।
श्री सद् गुरुदेव जी महाराज की श्री आज्ञानुसार प्रत्येक पर्व पर यहाँ सत्संग के कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। उस निश्चित समय में संयुक्त रूप से सभी गुरुमुखजन सत्संग का लाभ उठाते हैं।  महात्माजन एवं भक्तजन यहाँ बैठकर भजनाभ्यास करते हैं।
आपने अपनी श्री मौज से महात्मा संतोषानन्द जी को अपने समीप बुलाकर पावन वचनों में फ़रमाया—महात्मा जी ! हमारे परम आराध्यदेव श्री तृतीय पादशाही जी महाराज को श्री श्री 108 श्री द्वितीय पादशाही जी महाराज ने अपनी दिव्य वाणी में फ़रमाया था कि आप श्री आनन्दपुर का निर्माण एवं विकास करो। महापुरुषों की जन्मस्थली और कर्मस्थली यहीं पर है। जो श्री आनन्दपुर आएगा, उसे सारे तीर्थों का फल स्वयमेव ही प्राप्त हो जाएगा। उसे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं। आज श्री शान्ति भवन में श्री परमहंस दयाल जी को विराजमान किया गया है, तो समझो कि यही उनका पावन जन्म-स्थल है। परमार्थ भक्ति के जाज्वल्यमान् भास्कर श्री परमहंस दयाल जी इस धरा पर अवतरित हुए, उसी दिन ही श्री परमहंस अद्वैत मत की नींव रखी गई। यही महापुरुषों के गुप्त सन्देश होते हैं। हमने आपकी हार्दिक अभिलाषा को पूर्ण कर दिया है।
महात्मा जी इन श्री प्रवचनों को श्रवण कर नतमस्तक हो गए और हृदय से प्रभु जी का कोटि-कोटि आभार प्रकट करने लगे।
कुछ प्रबन्धकों ने परस्पर विचार विमर्श किया कि निवास स्थान से इतनी दूर ध्यान-भजन के लिए आना कठिन होता है। इसके लिए श्री चरणों में विनय करें कि एक स्थान आवास स्थान के पास भी होना चाहिए। अभी दो-चार दिन ही व्यतीत हुए थे कि पुनः उन्होंने एक-दूसरे के साथ अपने विचारों को व्यक्त किया। उन्होंने महापुरुषों की अगम, अव्यक्त महिमा का गुणगान करते हुए कहा—हम यह समझते थे कि भजनाभ्यास का नित्य नियम पूर्ण करने के लिए  इतनी दूर आना अत्यन्त कठिन होगा परन्तु यह स्थान तो मानो हमारे तन-प्राण में आत्म रूप में स्थित हो गया है। इसका प्रभाव, आत्मानन्द की अनुभूति सदा आकर्षित करती है और यह स्थान अब समीप ही लगने लगा है। सचमुच ही यहाँ पर बैठते ही सुरति आन्तरिक उच्च लोकों की ओर उड़ान भरने लगती है और जीवन अमृत रस धारा में डुबकियाँ लेने लगता है।
महाप्रभु जी ने पर्व के दिन सायं समय यहाँ पर कृपा फ़रमाई। उन्हीं प्रबन्धकों ने श्री चरणों में विनय की कि श्री आनन्दपुर में हो रही महान् रचनाओं को देखकर अति विस्मय होता है, बुद्धि असमंजस में पड़ जाती है परन्तु इसका समाधान व्यक्त अव्यक्त रूप से शीघ्र ही हो जाता है। यह आपकी कृपा से ही सम्भव है। श्री वचन हुए—श्री आनन्दपुर का कण-कण भक्ति से ओत-प्रोत है। वहाँ का वातावरण उसी अनुरूप ही मुक्तकणों से सम्पूर्ण है। जहाँ-जहाँ जिस-जिस स्थान का निर्माण होता है, वहाँ-वहाँ पर ही महापुरुषों की विशेष कृपा उतरती है। उस स्थान का प्रभाव उन्हीं गुणों से संयुक्त हो जाता है। यह एक प्राकृतिक विधान है।
श्री शान्ति भवन जीवन के अति उच्च ध्येय का पूरक, जन्मों से बिछुड़ी हुई आत्मा को परमात्मा से मिलाने का साधन बन निराली सुषमा से शोभायमान  है। प्रेमी गुरुमुख श्री वचनानुसार भजनाभ्यास करके अपूर्व आनन्द को प्राप्त कर जीवन को खुशियों से भर लेते हैं और लक्ष्य को पाने में सफल हो जाते हैं।

 

श्री शान्ति भवन (अभ्यास स्थल)

श्री सद् गुरुदेव जी महाराज श्री तृतीय पादशाही जी ने श्री आनन्दपुर में प्रत्येक परमार्थ भक्ति के स्थानों को रेखांकित कर दिया। प्रेमी गुरुमुख सेवा दर्शन करते हुए आनन्द के महासागर में डुबकियाँ लगा रहे थे, उस समय उनके लिए कोई अन्य साधन अपनाने के लिए विचार ही नहीं उठता था। विचारों को उत्पन्न होने का कोई समय मिले, तब न। हर समय प्रेम के अवतार प्रेम भरी लीला से सब को प्रभु प्रेम से ओत-प्रोत करते थे। इसी आत्मानन्द की अनुभूति में त्याग, तपस्या, उपासना—सब साधन समाहित थे।
श्री तृतीय पादशाही जी महाराज ने धुर-दरगाही मौज को सम्मुख रखते हुए भविष्य की जानते हुए उन सब स्थानों एवं साधनों को परिलक्षित किया। बाईयों के आवास स्थान के अन्तर्गत एक बड़े कमरे में श्री तृतीय पादशाही जी की श्री मूर्ति विराजमान थी, जहाँ पर संक्रान्ति के शुभ दिन बाईयाँ श्री आरति-पूजा करतीं। इस आवास स्थान से बाहर समीप ही टीन  की छत से आच्छादित एक बड़े कमरे का निर्माण करवाया। यहाँ पर भी लकड़ी के बने हुए सिंहासन पर श्री तृतीय पादशाही जी महाराज की पावन प्रतिमा विराजमान थी। बाहर से आई हुई कई बुज़ुर्ग बाईयाँ तथा संगते यहाँ पर भजनाभ्यास करतीं।
भक्त हितकारी श्री चतुर्थ पादशाही जी महाराज ने बाईयों व भक्तानियों को इसी शान्ति भवन में बैठकर एक घण्टा भजन करने का आवश्यक नियम बतलाया तथा परिपक्वता से इसका पालन करवाया। फ़रमाया कि सभी स्थायी निवासी एवं सत्संगी महात्माजन, बाईजन एवं संगतें प्रातः श्री परमहंस अद्वैत मन्दिर में श्री आरति-पूजा के पश्चात् अपनी-अपनी ओर के श्री शांति भवन में बैठकर  सुरत-शब्द-योग का नियम निभाए और मानव जीवन को सफल करें।
परम पुरुष, परम ब्रह्म साकार, अलौकिक  गुण  सम्पन्न श्री परमहंस सद् गुरुदेव जी श्री पंचम पादशाही जी ने कई बार श्री शान्ति भवन में बैठकर भजन-अभ्यास करवाया और मानव जन्म की सफलता एवं पूर्णता का विशिष्ट साधन बतलाया। उस समय छोटा स्थान होने के कारण इस टीन की छत पर खपरैलें डालकर कुछ स्थान आगे बढ़ाया। जैसे-जैसे उपयुक्त समय आता गया, उस स्थान को भव्य रूप प्रदान करते गए।
आपने सन् 1984 में इस भवन निर्माण की नींव रखी। इसे हवादार बनाने के लिए खुले दरवाज़े, खिड़कियाँ व रोशनदान रखवाए। चहुँ और बरामदे व प्रांगण के बाहर परिधि के अन्दर फूलों के पौधे लगवाए। इन फूलों की सुगन्धि युक्त समीर से मस्तिष्क में तरो-ताज़गी आती है। संगमरमर की शिलाओं से श्री सिंहासन जी के चारों ओर कुछ स्थान का निर्माण करवाया। इसका सेवाकार्य अति तीव्र गति से सम्पन्न हुआ और यह भव्य भवन एक वर्ष में बनकर तैयार हो गया। संगमरमर का कार्य धीमी गति से चलता रहा
श्री सद् गुरुदेव जी महाराज ने 31 मार्च सन् 1985 को शुभ रामनवमी के दिन प्रातःकाल प्रातः स्मरणीय, जगत वन्दनीय, महातपोनिधि, ब्रह्मनिष्ठ श्री परमहंस दयाल जी की दिव्य प्रतिमा को इस नव निर्मित शांति भवन के सुंदर सिंहासन पर निज कर कमलों से विराजमान किया। हार-पीताम्बर पहनाकर दिव्य स्वरूप को केसर तिलक से सुशोभित किया। श्री आरति-पूजा का कार्यक्रम हुआ।

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