कल्याण मार्ग

कल्याण मार्ग 

सितम्बर 2025

( आगे का धन )

 

कबीर सो धन संचिए, जो आगे को होय ।
सीस चढ़ाए गाठड़ी, जात न देखा कोय
आध्यात्मिक धन का महत्व—

परमसंत श्री कबीर साहिब जी का यह दोहा जीवन के एक गहरे सत्य को उजागर करता है। इस दोहे में श्री कबीर साहिब जी हमें उस धन के संचय का महत्व समझाते हैं, जो इस नश्वर संसार के बाद भी हमारे साथ जाता है। सांसारिक धन-संपत्ति, वस्त्र, मकान या अन्य भौतिक वस्तुएँ मृत्यु के बाद हमारे किसी काम नहीं आतीं। इसलिए हमें ऐसे धन का संग्रह करना चाहिए जो आत्मा को उन्नति की ओर ले जाए और मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहे।

सांसारिक जीवन में धन-संपत्ति का महत्व तो है, लेकिन यह केवल भौतिक सुख-सुविधाओं तक सीमित है। परमसंत श्री कबीर साहिब जी यहाँ ‘धन’ को प्रतीकात्मक रूप में उपयोग करते हुए हमें चिताते हैं कि हमें परोपकार, सच्चाई, प्रेम और ईश्वर भक्ति का संचय करना चाहिए। यही ऐसा धन है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा को शुद्ध रखता है और ऊँचा दर्ज़ा दिलाता है।

इस बात को समझाने के लिए कई दृष्टांत दिए जाते हैं। एक किसान खेत में बीज बोता है। अगर वह केवल सूखी और बंजर भूमि में बीज बोएगा, तो फसल नहीं उगेगी। लेकिन यदि वह उपजाऊ भूमि में बीज बोएगा, तो वह आने वाले समय में अत्यधिक फसल का आनंद लेगा। ठीक इसी प्रकार, अगर हम अपने जीवन में केवल भौतिक वस्तुओं के पीछे भागते हैं, तो यह उसी बंजर भूमि में बीज बोने जैसा है। लेकिन यदि हम दया, धर्म और भक्ति के बीज बोते हैं, तो यह हमारे जीवन के बाद भी हमें आत्मिक संतोष प्रदान करेगा।

इस विषय में स्वयं परमसंत श्री कबीर साहिब जी का जीवन इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उन्होंने अपने जीवन में धन-संपत्ति का संचय नहीं किया, बल्कि सत्य, प्रेम, दया, धर्म, अहिंसा और परोपकार का मार्ग अपनाया। आज उनकी शिक्षा और विचार दुनिया भर में लोगों के लिए प्रेरणा बने हुए हैं। उनका ‘धन’ वह नहीं था जो बैंक में जमा था, बल्कि वह  आदर्श थे, जो आज भी हमारे लिए पूरी तरह प्रासंगिक हैं।

परमसंत श्री कबीर जी यहाँ यह नहीं कहते कि भौतिक धन की पूर्ण रूप से अवहेलना की जाए। जीवन में भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन की ज़रूरत होती है, लेकिन इसे ही जीवन का अंतिम उद्देश्य मान लेना भूल है। हमें भौतिक धन के साथ-साथ आध्यात्मिक धन का भी संचय करना चाहिए।

इस वाणी का संदेश हमें यह सिखाता है कि अपने जीवन में ऐसी सच्ची वस्तु का भी संचय करें, जो हमारे अपने चरित्र, आत्मा और दूसरों के लिए भी मूल्यवान हों। हमें अपने विचार, कर्म और व्यवहार में सच्चाई, करुणा और दया का समावेश रखना चाहिए।

सन्तों की वाणी हमें जीवन का गूढ़ सत्य समझाती है। यह उपदेश हमें सतर्क करता है कि हम अपने जीवन का मूल्यांकन करें और यह देखें कि हम किस प्रकार का धन संचय कर रहे हैं। यदि हमारा ध्यान केवल भौतिक सुखों की ओर है, तो हमें इसे बदलने की आवश्यकता है। जीवन में वह धन संचय करें जो हमें न केवल इस संसार में, बल्कि परलोक में भी आनंद प्रदान करे। परलोक में तो केवल प्रभु भक्ति का धन ही साथ जाता है।

सीस चढ़ाए गाँठड़ी का प्रतीक—

संसार से विदा होते समय भौतिक वस्तुओं को ले जाना असंभव है। मनुष्य का जन्म और मृत्यु इसका प्रमाण हैं। मृत्यु होने पर सब कुछ यहीं का यहीं पड़ा रह जाता है। इसलिए अपने जीवन में सुमिरण-ध्यान और सत्संग का धन संग्रह करना अति आवश्यक है।

सेठ धन्ना लाल की कथा—

एक गाँव में धन्ना लाल नाम का एक व्यापारी रहता था। वह अत्यंत धनी था और उसका गाँव में बड़ा सम्मान था। लेकिन उसको अपने धन और प्रतिष्ठा पर बहुत अभिमान था। उसका पूरा जीवन धन-संपत्ति को बढ़ाने में ही लगा हुआ था। धन के अभिमान में वह किसी को कुछ नहीं समझता था और न ही किसी का वह सम्मान करता था। उसी गाँव में एक साधु महाराज भी रहते थे, जिनका नाम था नवनाथ। वे सादा जीवन जीते और हमेशा संतुष्ट रहकर भक्ति और सेवा में रमे रहते थे।

सेठ धन्नालाल को साधु नवनाथ महाराज की सादगी और उनकी बातों पर हँसी आती थी। एक दिन मार्ग में चलते हुए उनकी साधु महाराज से वार्त्ता होने लग गई। सेठ धन्ना लाल ने कहा, आपका यह फटेहाल जीवन देखकर मुझे आश्चर्य होता है। धन कमाना और भौतिक सुखों का आनंद लेना ही जीवन का असली उद्देश्य है। मैं आपसे ज़्यादा सुखी हूँ क्योंकि मेरे पास सब कुछ है। साधु मुसकराए और बोले, धन्ना लाल, जीवन का असली धन वह है जो मृत्यु के बाद भी तुम्हारे साथ जाए। क्या तुम्हारा सारा धन तुम्हारे साथ जाएगा ?

धन्ना लाल इस बात पर हँसते हुए बोला, महाराज, आपकी बातें कल्पना लगती हैं। लेकिन ठीक है, मैं इसे समझने की कोशिश करूँगा। साधु महाराज ने उसे जवाब दिया, समय तुम्हें खुद सिखाएगा।

जीवन के सब दिन एक समान नहीं रहते। कुछ समय बाद, धन्ना लाल के व्यापार में घाटा होने लगा। घाटे की नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि उसे अपने परिवार की रक्षा के लिए अपनी संपत्ति भी बेचनी पड़ गई। इस प्रकार धीरे-धीरे सब कुछ खत्म हो गया। जब धन्ना लाल के पास कुछ भी नहीं बचा, तो उसके मित्र और रिश्तेदार भी उससे दूर हो गए। अब उसे समझ में आने लगा कि धन और भौतिक सुख स्थायी नहीं होते।

अब जब मस्तिष्क से धन का नशा उतर गया तो उसे साधु महाराज की बातें याद आने लगी। एक दिन वह साधु महाराज के पास गया और बोला, महाराज, मैं हार चुका हूँ। मेरे पास अब कुछ भी नहीं है। अब मुझे बताइए, मेरा असली धन क्या है और कहाँ है ?

साधु महाराज ने मुसकराते हुए कहा, धन्ना लाल, असली धन वह है जो आत्मा को शुद्ध करे और तुम्हें सच्चे आनंद की ओर ले जाए। यह धन सत्य, प्रेम, करुणा, भक्ति और परोपकार के रूप में होता है। जो दूसरों की मदद करता है। जो ईश्वर की शरण में रहता है, वही वास्तव में धनी है।

धन्नालाल ने साधु महाराज की बातों को ध्यान से सुना और उनका अनुसरण करने का निश्चय किया। उसने अपने जीवन को बदलना शुरू किया। अब उसने परिश्रम करना शुरू किया और जो कुछ धन उसे मिलता उससे वह अपना भरण-पोषण करके ज़रूरतमंदों की मदद भी करने लगा और सच्चाई व  ईश्वर भक्ति के मार्ग पर चलने लगा। धीरे-धीरे, धन्नालाल को आत्मिक शांति और आनंद मिलने लगा।

कुछ वर्षों में ही धन्नालाल पूरी तरह बदल गया, प्रभु-भक्ति करते हुए वह सन्त महात्माओं की सेवा करने लगा। गाँव के लोग भी उसके इस बदले हुए रूप को देखकर बड़े प्रसन्न हुए और प्रभावित होकर उसका सम्मान करने लगे। वे अब उसे भक्ति और सेवा के प्रतीक के रूप में जानने लग गए। उसने साधु महाराज के वचनों को अपना जीवन-मार्ग बना लिया। जब उसकी मृत्यु हुई, तो लोग उसे याद करते हुए कहने लगे, धन्ना लाल ने वह धन कमाया, जो हमेशा उसके साथ रहेगा। सत्य ही है—

कबीर सो धन संचिए, जो आगे को होय ।’

 

D

अगस्त 2025

ईश्वर का मूल्य

           मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर प्रायः कम ही आते हैं, जब उसे कोई अनमोल वस्तु अत्यंत सुलभ मूल्य पर मिलती दिखती है। किंतु यदि वह मनुष्य उस अवसर का लाभ उठाने में विलंब कर दे, तो वह वस्तु किसी अन्य को मिल जाती है। संतों की वाणी में संसार के इन छोटे-छोटे व्यावहारिक अनुभवों को आध्यात्मिक विमर्श से जोड़ते हुए, बार-बार यह समझाया गया है कि परमात्मा को प्राप्त करना हमारा परम कर्तव्य है और यदि इसके लिए किसी भी प्रकार का त्याग करना पड़े तो उसे तत्काल कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में संतों द्वारा कही गई एक वाणी बहुत प्रसिद्ध है–

जे सिर सांटे हरि मिले, तो हरि लीजै दौर ।
नारायण’ या देर में, मत गाहक आवै और ॥

इस पंक्ति में निहित है कि यदि भगवान को पाने के लिए अपना सिर भी अर्पित करना पड़े, तो झटपट अर्पित कर देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हम देर कर दें और कोई दूसरा भक्त उस सौदे का लाभ उठा ले। आध्यात्मिक रूप से यह सिर अर्पित करने का अर्थ है पूर्ण समर्पण, अहं का त्याग और अपने तन-मन-धन की बाज़ी लगाकर प्रभु को पा लेना। यह वचन मनुष्य को चेतावनी देता है कि विलंब उचित नहीं है; इतना अनमोल सौदा कहीं और  नहीं मिलेगा।

इस वचन का उचित और विस्तृत विश्लेषण करते हुए हम इसे गीता, रामायण, संत वाणी और कुछ दृष्टांतों के प्रकाश में समझने का प्रयास करेंगे। साथ ही हम देखेंगे कि भक्ति, समर्पण व त्याग की भावना हमें किन-किन आयामों में लाभ पहुँचाती है

वचन का मूल भाव और अर्थ

 

जे सिर सांटे हरि मिले—इस अंश में ‘सिर सांटना’ यानी अपना सिर बलिदान कर देना या अपनी समस्त पहचान, अहंकार, सीमित सोच, और सांसारिक मोह त्याग देने की बात की गई है। सिर मनुष्य के अस्तित्व, ज्ञान और अहं का प्रतीक है। जब किसी बात के लिए हम कहते हैं कि हम सिर कटा सकते हैं, पर पीछे नहीं हटेंगे, तो उसका भाव यह होता है कि हम उसके लिए अपना सर्वस्व देने को तैयार हैं। संत वाणी में ‘सिर सांटना’ का आशय भी इसी भाव से है, परंतु यहाँ भाव दैहिक रूप से सिर काटकर चढ़ा देने भर का नहीं, बल्कि—अपने सारे सांसारिक अहम, इच्छाएँ और उलझनों को त्याग कर, परमात्मा के प्रति पूरे समर्पण की स्थिति को प्राप्त करने का है।

‘तो हरि लीजै दौर’—दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि अगर इस त्याग से भगवान प्राप्त होते हैं, तो भगवान को झटपट पकड़ लो, उसमें विलंब मत करो। यहाँ हरि लीजै दौर का अर्थ है—द्रुत गति से, बिना देर किए, प्रभु को अंगीकार कर लेना। ‘हरि’ यहाँ ईश्वर का द्योतक है—वह ईश्वर जो संसार से हटाकर हमें अपने भीतर आनंद और परम शांति का अनुभव कराता है।

‘नारायण’ या देर में, मत गाहक आवै और तीसरी पंक्ति में ‘नारायण’ सम्बोधन के साथ यह हिदायत दी गई है कि कहीं ऐसा न हो कि देर करने पर कोई और भगवद्-भक्त इस अवसर का लाभ उठा ले और हम पीछे रह जाएँ। यहाँ ‘गाहक’ शब्द का उपयोग एक ग्राहक के अर्थ में किया गया है, जो अनमोल ‘वस्तु’ अर्थात् ईश्वर को पाने के लिए तत्पर है।

संत कवियों की शैली में यह व्यंग्यपूर्ण, लेकिन गहरा आध्यात्मिक संकेत है कि ईश्वर किसी व्यक्ति विशेष के लि आरक्षित नहीं है; जो भी सच्चे हृदय से पुकारता है, समर्पण करता है, उसे ईश्वर प्राप्त होते हैं।

इस पूरे वचन का सार यह है कि भगवान को पाने के लिए यदि पूर्ण त्याग भी करना पड़े तो भी वह सौदा सस्ता ही है। कोई भी सांसारिक उपलब्धि परमात्मा की प्राप्ति से बढ़कर नहीं हो सकती। यह बात हमारे भीतर उत्साह और तत्परता जगाती है कि हम अपने जीवन की प्राथमिकताओं का पुनरावलोकन करें और ईश्वर-प्राप्ति के लिए हर संभव प्रयास करें।

आध्यात्मिक पृष्ठभूमि—क्यों आवश्यक है समर्पण ?

 

कई भक्तों और साधकों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर इतना पूर्ण समर्पण क्यों आवश्यक है ? क्या ईश्वर हमसे कोई सौदा करना चाहते हैं ? क्या परमात्मा स्वार्थी हैं जो हमारे त्याग पर निर्भर हों ? ऐसे प्रश्न मन में आना स्वाभाविक है। वास्तव में त्याग या समर्पण से ईश्वर को न तो कोई भौतिक लाभ होता है, न ही वे किसी के त्याग के भूखे होते हैं।

· समर्पण का प्रथम उद्देश्य है—मनुष्य के भीतर की अहं-ग्रंथि का विलीन हो जाना। अहंकार मनुष्य को ईश्वर से दूर करता है। जब मनुष्य सोचता है कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ, मैं सब कर सकता हूँ, तब उसे परमात्मा की महानता और अनंतता का भान नहीं रह जाता। वह अपनी सीमित मन-बुद्धि में उलझा रह जाता है।

· दूसरा उद्देश्य है—प्रीति और श्रद्धा का पोषण। जब हम पूरे समर्पण के साथ ईश्वर को सबसे प्रिय मानते हैं, तो हमारे भीतर उनके प्रति श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का उदय होता है। ऐसा प्रेम ही जीवन में आनंद और शांति का स्रोत बनता है।

· तीसरा महत्वपूर्ण पहलू है—अपने वास्तविक स्वरूप की खोज। शास्त्रों और संतों के अनुसार वास्तविकता में, जीवात्मा परमात्मा का अंश है। हमारा सच्चा स्वरूप तो वही दिव्य चेतना है, किन्तु मन और इंद्रियों के दासत्व में फँसकर हम स्वयं को सीमित समझ लेते हैं। समर्पण से यह सीमितता टूटती है और हमें अपनी वास्तविक दिव्य क्षमता का अनुभव होने लगता है।

 जुलाई 2025

जीवन की विषमताओं में भक्ति की महिमा

 

            जीवन एक ऐसा महासागर है, जिसमें प्रतिक्षण हम सुख-दुःख की लहरों से टकराते रहते हैं। इन  उतार-चढ़ावों का मूल कारण हमारे ही कर्म और प्रारब्ध होते हैं। उपनिषद हमें सिखाते हैं—

असतो मा सद् गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
      (बृहदारण्यक उपनिषद)

अर्थात्—हे प्रभु ! मुझे असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु के भय से अमृत तत्व की ओर ले चलो।

जब हम नाम-सुमिरण और सत्संग के प्रकाश में अपने मन को स्थापित कर लेते हैं, तब जीवन की कितनी भी कठिन परिस्थिति क्यों न हो, हमें मार्ग मिल ही जाता है।

1. एक भक्त की व्यथा और गुरुदेव की शिक्षा—

            एक साधक भक्त ने अपने गुरुदेव से प्रार्थना की—महाराज जी ! मेरे जीवन में अनेक विपत्तियों का अंबार लगा है। शरीर रोगों से ग्रस्त है, पुत्र नहीं है, एक बेटी थी जो अब इस संसार से विदा हो गई। पत्नी भी बीमार रहती है। आपका उपदेश है कि नाम-सुमिरण करो, पर मन की अस्थिरता के कारण वह भी सुचारू रूप से नहीं हो पाता। इन परिस्थितियों में अपने चित्त को कैसे स्थिर रखूँ ?

गुरुदेव ने बड़े प्रेम से समझाया—प्यारे भक्त, हमें जो भी परिस्थितियाँ मिलती हैं, वे हमारे ही कर्मों का परिणाम हैं। अच्छा-बुरा, सुख-दुःख—सब कर्म के अनुसार भोगना ही पड़ता है।

श्रीमद् भगवद् गीता में भी श्री भगवान फ़रमाते हैं—

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

अर्थात्—मनुष्य को केवल कर्म करने का ही अधिकार है, किन्तु फल पर नहीं। अतः फल की आसक्ति छोड़कर कर्म करते रहना ही श्रेयस्कर है। इसलिए जो भी कर्म के फल प्राप्त हो रहे हैं, उन्हें ईश्वरीय प्रसाद मानकर भोगो और साथ ही नाम-सुमिरण को कभी न छोड़ो।

2. कर्म का सिद्धांत और विवेकपूर्ण भोग—

कर्म के अपरिहार्य सिद्धांत को संतों ने सदैव समझाया है। शरीर धारण किए हुए प्रत्येक प्राणी को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास जी का एक प्रसिद्ध दोहा है—

देह धरे का दंड है, सब काहू को हो
ज्ञानी काटे ज्ञान से, अज्ञानी काटे रोए ॥

अर्थात्—देह का धारण करना ही अपने आप में एक दंड है। इस संसार में जन्म लिया है तो कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। परंतु ज्ञानीजन इन कष्टों को ज्ञान-विवेक के सहारे बड़े शांत भाव से काटते हैं, जबकि अज्ञानीजन रोते और झींकते हुए समय गुज़ारते हैं।

इसलिए यदि जीवन में बहुत-सी कठिनाइयाँ आ रही हैं, तो यह समझना चाहिए कि ये हमारे कर्मों के परिणाम स्वरूप ही हैं। हमारा लक्ष्य होना चाहिए—इन कर्मों के फल को सहन करते हुए आत्म-उत्थान के लिए साधना करते रहना। बिना साधना के कर्मयोग अधूरा है। यही वह साधनायुक्त कर्म-योग है, जिसके बारे में गीता में कथन है—

योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

            अर्थात्—हे धनंजय ! आसक्ति को त्यागकर सम भाव में स्थित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करो। सफलता और असफलता दोनों में समान भाव रखना ही योग कहलाता है।

3. भक्ति में दृढ़ता और नाम-सुमिरण का महत्व—

जीवन के संघर्षों से जूझते समय मन की चंचलता और दु:ख की प्रचंडता हमें व्याकुल करती है। किन्तु भक्ति का सहारा मिल जाए तो मनुष्य की दृढ़ता बढ़ जाती है। कठोपनिषद् में उल्लेख मिलता है—

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।

अर्थात्—‘उठो, जागो और उत्तम पुरुषों के संग में उत्तम मार्ग पर चलो।’ भक्ति और सत्संग का मार्ग ही ऐसा है जो हमें सत्य का बोध कराता है। इस मार्ग पर चलते हुए प्रभु-नाम का निरंतर स्मरण मन को शांति और धैर्य प्रदान करता है। संसार में रमे हुए मनुष्य इस सत् के मार्ग पर न चलकर मन माने मार्ग पर चल पड़ते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे आत्मा का रुख अधोगति की ओर मोड़ देते हैं —

जैसा कि श्री कबीर साहिब जी ने कहा है—

साधो देखो जग बौराना,
सत्य बात कोई न पहचाना ।

सत्य बात संतन पहचाना ॥

यह सत्य बात क्या है ? इस मिथ्या जगत् में केवल प्रभु नाम-सुमिरण ही सत्य है, अन्य सब मिथ्या है। श्री कबीर साहिब जी की दृष्टि में, जो व्यक्ति सत्य को जानना चाहता है, उसे जगत् के अस्थिर भोगों से मन को हटाकर नाम-सुमिरण का सहारा लेना चाहिए। यही सत्य का मार्ग है, जो अंततः हमें परमात्म-तत्व से जोड़ता है।

4. ज्ञानी व अज्ञानी की भिन्न दृष्टि—

गुरुदेव ने समझाया कि शरीरधारी सभी को कर्मफल भोगना है, परंतु फल भोगने में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों का भाव भिन्न-भिन्न होता है। ज्ञानी जन तो जीवन के हर प्रसंग को प्रभु की लीला समझते हुए उसमें सम-भाव रखते हैं। वे न तो सुख में उछलते हैं, न दुःख में टूटते हैं। अज्ञानी या सत्संग-ज्ञान से वंचित व्यक्ति, सदा समय को कोसता रहता है और विपरीत परिस्थितियों में निराश और दुखी रहता है। ज्ञानी पुरुष अपने सम-भाव के कारण सभी जीवों में एक पारब्रह्म को देखते हुए मोहित नहीं होता। 

श्रीमद् भगवद् गीता में कहा गया है—

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥

            अर्थात्—जिस प्रकार ज्ञानवान व्यक्ति ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते या चांडाल में कोई भेद नहीं करता; वह सब में एक ही परमात्म-तत्व का दर्शन करता है। उसी प्रकार ज्ञानीजन जीवन की हर परिस्थिति में ईश्वर की ही मौज को देखते हुए समदृष्टि रखते हैं।

5. सत्संग द्वारा आत्मनिरीक्षण—

गुरु भक्ति में दृढ़ता लाने के लिए सत्संग-श्रवण द्वारा आत्म निरीक्षण करते रहना आवश्यक है। सत्संग रूपी गुरु प्रकाश में हम अपने दोषों को देख पाते हैं और उन्हें दूर करने का प्रयास भी कर सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है—

बिनु सत्संग विवेक न होई
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥

सत्संग के बिना हृदय में विवेक का उदय नहीं होता और प्रभु की कृपा के बिना सत्संग भी दुर्लभ है। सत्संग में जाकर हम संतों-महापुरुषों के अनुभव सुनते हैं, उनके बताए आदर्शों को जीवन में उतारते हैं और अपने विचारों को परिष्कृत कर पाते हैं।

आत्म निरीक्षण का अर्थ है अपने दैनिक कर्मों, भावनाओं और विचारों पर ध्यान देना। यदि किसी दिन क्रोध अधिक बढ़ गया, लोभ या ईर्ष्या जैसे विकार हावी हुए, तो समझ लें कि हमें प्रभु-नाम और गुरु-मंत्र के अभ्यास को और मज़बूत करना है। धीरे-धीरे हमारा आत्म-बल बढ़ता जाएगा और फिर विकारों का प्रभाव स्वतः कम होने लगेगा।

6. गुरु-मंत्र और प्रभु-कृपा का आधार—

गुरु-मंत्र का स्मरण हमारे अंतर्मन को स्थिर करता है। जिस तरह एक कुशल वैद्य रोगों का निदान करने के लिए औषधि देता है, उसी तरह सद् गुरु हमारी आंतरिक दुर्बलताओं का निदान करने के लिए नाम-जप, ध्यान और सेवा का मार्ग दिखाते हैं। यदि हम गुरु वचनों पर विश्वास करते हुए उनका आचरण करें, तो हमारे भीतर की नकारात्मक वृत्तियाँ दूर होने लगती हैं और भक्ति में गहरी रुचि जागृत होती है।

   श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान कथन करते हैं—

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥

अर्थात्—‘तत्वदर्शी ज्ञानवान गुरु के पास विनम्रता और सेवा-भाव से जाओ, उन से श्रद्धापूर्वक प्रश्न करो; वे तुम्हें परम ज्ञान प्रदान करेंगे।’ गुरुदेव के उपदेश के अनुरूप यदि हम अनुशासित जीवन जीते हैं तो कठिनाइयों के बीच भी मन स्थिर और आनंदित रह सकता है।

7. कठिनाइयों को आत्म-विकास का अवसर मानना—

            जीवन की हर प्रतिकूलता, हर विपरीत स्थिति, वास्तव में हमें परिपक्व बनाती है। मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है—

भिद्यते  हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते  सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्
दृष्टे परावरे ॥

अर्थात्—पारब्रह्म का साक्षात्कार होने पर हृदय के सभी बंधन टूट जाते हैं, संदेह दूर हो जाते हैं और कर्म क्षीण होने लगते हैं।’ यद्यपि सामान्य सांसारिक अवस्था में परमात्म तत्व का प्रत्यक्ष साक्षात्कार पूर्ण रूप से न भी हो पाए, किन्तु नाम-सुमिरण और गुरु-कृपा से हम अपने भ्रमों से मुक्ति पाने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं। विपरीत परिस्थितियाँ हमारे भीतर छिपे धैर्य, साहस और समर्पण को उभारती हैं, बशर्ते हम उन्हें आत्म-विकास का साधन बनाने का संकल्प लें।

8. निष्कर्ष—प्रभु-नाम की शरण ही वास्तविक बल—

जीवन में किसी भी प्रकार की अस्थिरता या विपत्ति आने पर, उसका सबसे सशक्त समाधान है—प्रभु-नाम का आश्रय। यही वह सत्य है, जिसका उल्लेख संत-कवियों से लेकर उपनिषदों एवं गीता ने सर्वत्र किया है। जितना-जितना हम नाम-सुमिरण की गहराई में जाते हैं, उतना ही मन की चंचलता समाप्त होती जाती है और हम अहंकार, मोह व भ्रम से मुक्त होने लगते हैं। संत तुलसीदास जी ने कहा है—

राम नाम मनिदीप धरू जीह देहरी द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजियार ॥

अर्थात्—यदि तुम अपने अंदर और बाहर दोनों जगह प्रकाश चाहते हो, तो जीभ रूपी देहरी पर राम-नाम का दीपक जलाए रखो। वास्तव में यही मंत्र हमें अंदर और बाहर का घोर अंधकार मिटाने की शक्ति देता है।


     जून 2025

 

कल्याण मार्ग

( भ्रम का निवारण )

 

            जैसे वृक्ष फल के बिना सूना लगता है, वैसे ही प्रभु की लगन एवं प्रेम के बिना मनुष्य सूना है। जैसे दही के बिना दूध में से मक्खन नहीं निकलता, वैसे ही सच्ची व तीव्र लगन के बिना मनुष्य को तत्व ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। जैसे तेल के बिना मशाल नहीं जल सकती और प्रकाश नहीं होता, वैसे ही अखंड नाम जाप के बिना हृदय में आंतरिक ज्योति का प्रकाश नहीं होता।

गुरु अष्टावक्र जी राजा जनक जी को उपदेश कर रहे हैं—

एको विशुद्ध बोधोऽहं इति निश्चय वह्निना ।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव

             (अष्टावक्र गीता )
 

अर्थ—हे राजन् ! मैं एक विशुद्ध आत्म-ज्ञान अथवा बोध प्राप्त हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान के वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ।

अभिप्राय यह कि व्यक्ति के अज्ञान और भ्रम के कारण जगत् में समस्त शोक और दु:ख व्याप्त हो रहे हैं। हृदय में छा अज्ञान और भ्रम के अंधेरे में जीव भटक रहा है।

 यह संसार और इसके सुखभोगों की रचना एक बाज़ीगर द्वारा रचाई गई बाज़ी की तरह हैं जो वास्तव में न होते हुए भी दिखाई देती है। इसी तरह हमें प्रभु ने इस संसार रूपी बाज़ार में सच्चे नाम रूपी सामान लेने के लिए यह मनुष्य शरीर दिया है। जो व्यक्ति समझदार होते हैं, वे तो बाज़ीगर के इस खेल में नहीं फँसते बल्कि नाम-सुमिरण की कमाई में लगकर स्वयं को बचा लेते हैं। जो अज्ञानी जीव इस शरीर को सांसारिक झूठे-धंधों में गंवाकर प्रभु के हुक्म को भुला देते हैं, वे अनेक योनियों में भटकते हैं। इसलिए तनिक भी प्रमाद न करो, नहीं तो ऐसा हाल होगा जैसा कि एक गीदड़ का हुआ था।

कथा है—एक गीदड़ सर्दी की रात में जंगल से भागकर एक गाँव में किसी हलवाई के चूल्हे की गर्म राख में आकर बैठ गया और बहुत आनन्द अनुभव करने लगा। रात्रि बीती तो भोर का उजाला फैलने लगा। आलस्य के मारे वह गीदड़ सोचने लगा कि अभी थोड़ी देर और आनन्द ले लूँ, फिर उठ जाता हूँ। ऐसा सोच ही रहा था कि हलवाई भट्ठी गर्म करने आ गया। आकर उसने देखा कि वहाँ गीदड़ बैठा है तो एकदम डंडा उठाकर उसके सिर पर मारना शुरु कर दिया। गीदड़ चीखता हुआ भट्ठी से बाहर निकला। अभी वह दौड़ने ही लगा था कि गाँव के कुत्तों ने उसे घेर लिया और उन्होंने उसे चीर-फाड़ कर मार डाला। आलस्य करने के कारण वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठा।

ऐसे ही जो जीव इस संसार में थोड़े व मिथ्या क्षणिक सुखों को आनन्द का स्रोत समझकर उनमें सुरति फँसा लेते हैं और भजन करने में आलस्य करते हैं, उन्हें भी यम के डंडे सिर में लगते हैं अर्थात् जन्म-जन्म तक वे काल के शिकार बन जाते हैं।

इस अज्ञानता के अंधेरे को केवल ग्रंथ-शास्त्रों के अध्ययन मात्र से दूर नहीं किया जा सकता। यह यकीन हो जाना कि मैं विशुद्ध ज्ञान हूँ का बोध केवल गुरु उपदेश से संभव है। गुरु शब्द के अभ्यास से वह आंतरिक ज्ञान प्रकट होता है। इसके लिए तीव्र जिज्ञासा और लगन की आवश्यकता होती है।

किसी व्यक्ति को यदि भूख नहीं हो तो उसे स्वादिष्ट व्यंजन भी फीके लगते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति ने किसी डॉक्टर के पास जाकर कहा कि मैं बीमार हूँ, आप मुझे दवा देने की कृपा करें। डॉक्टर ने पूछा कि आपको कौन-सी बीमारी है ? उसने कहा कि मुझे भूख ही नहीं लगती। जैसे भूख का न लगना शारीरिक बीमारी है और यह बीमारी ऐसी है कि भूख न लगने से भोजन नहीं खाया जाएगा, भोजन न खाया तो शरीर में रक्त नहीं बनेगा। रक्त न बना तो शक्ति क्षीण हो जाएगी और अन्तत: शरीर नष्ट हो जाएगा। ऐसे ही जिसे भक्ति-मार्ग की ओर अग्रसर होने की लगन नहीं है, वह सत्संग में नहीं जाएगा। सत्संग में न जाने से उसका अज्ञान दूर नहीं होगा। सत्संगति न मिलने के कारण कुसंगति का प्रभाव उसे विकारों की ओर ले जाएगा। विकारों का दबाव बढ़ने से उसकी आत्मा निर्बल हो जाएगी और उसे भ्रम तथा अज्ञानवश महान् दु:ख भोगना पड़ेगा।

जैसे डॉक्टर दवाइयों के द्वारा पाचन शक्ति को बढ़ाता है, वैसे ही महापुरुष; जो वास्तव में आध्यात्मिक वैद्य हैं, सेवक की लगन को बढ़ाने के लिए सत्संग के स्थान बनवाते हैं। वहाँ पर विवेक वचनों का अमृत प्रवाह करके और सेवा का सुअवसर प्रदान करके उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, जिससे नाम- सुमिरण की भूख लगनी आरम्भ हो जाती है। उसे फिर सभी भक्ति के साधन अच्छे लगने लगते हैं।

पारब्रह्म की जिसु मनि भूख
नानक तिसहि न लागहि दूख

             
(गुरुवाणी)

जिसके मन में ईश्वर परमात्मा के दर्शन करने की भूख है, श्री गुरु नानक देव जी वर्णन करते हैं कि उसे कोई दु:ख व कष्ट स्पर्श नहीं कर सकता।

सत्संग में जाने से जीव को जागृति मिलती है और सत्पुरुषों के चरणों में प्रेम उपजता है। ऐसे अलौकिक व दिव्य प्रेम का झरना विस्फुटित हो जाता है कि सद् गुरु के दर्शन के बिना उसे सब नीरस लगने लगता है। अतः गुरुमुख को सदैव संसार में द्गुरु  के बताए हुए उपाए के अनुसार ही चलना चाहिए तभी उसका जीवन सुख पूर्वक व्यतीत होगा एवं परलोक भी संवर जाएगा। द्गुरु की महिमा अनन्त है, वेद शास्त्र व शेष शारदा भी इसका पारावार नहीं पा सके। इनकी कृपा की एक दृष्टि ही रंक को राजा बना देती है। 

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें