सोचिए और विचारिए
हरा वृक्ष पानी का स्नेह (प्रभाव) जानता है अर्थात् वह पानी को पाकर खूब फलता-फूलता है। सूखे काठ पर कितना ही पानी बरसे वह उसके प्रभाव और गुण को ग्रहण नहीं कर सकता। ऐसे ही श्रद्धा-भाव युक्त पुरुष सत्संग के गुण से प्रभावित होकर उन्नति करता है। श्रद्धा-हीन व्यक्ति पर सत्संग का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता।
हरा वृक्ष जब पानी को पाकर फलता-फूलता है, तो वह जीवन के अनुकूल और समृद्धि का प्रतीक बन जाता है। यह इस बात का उदाहरण है कि सही माहौल और सही सहयोग मिल जाने पर व्यक्ति किस तरह से अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर सकता है।
अगस्त 2025
आंतरिक ईश्वर का सत्य—उक्त शब्द का अर्थ है कि जैसे आँखों की पुतली हमारी दृष्टि का माध्यम है, वैसे ही ईश्वर हमारे भीतर आत्मा के रूप में विद्यमान है। अज्ञानी व्यक्ति इसे समझने में असमर्थ होते हैं और बाहरी दुनिया में ईश्वर की खोज करते हैं।
बाहरी खोज का भ्रम—हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा में अक्सर बाहरी साधनों और स्थलों में ईश्वर की तलाश करते हैं, लेकिन असली ईश्वर तो हमारे अंतर्मन में मौजूद हैं।
अज्ञान का निवारण—सन्तजन ऐसे अज्ञान का निवारण करते हैं। वे जानते हैं कि ईश्वर उनके भीतर है, वहीं खोज करनी चाहिए।
आत्मा में ईश्वर का वास—सार यह है कि ईश्वर को बाहर ढूँढने की बजाए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। आत्मा में ही ईश्वर का वास है, जो ध्यान में प्रकट होगा।
जुलाई 2025
कबीर मन परबत भया, अब मैं पाया जान । टांकी लागी शबद की,निकसी कंचन खान ॥
ऐ जिज्ञासु ! मैं अब अच्छी प्रकार जान गया हूँ, मन महा पाषाण है। इसमें जब शबद की चोट लगती है, तभी कंचन की खान प्रकट होती है।
इस दोहे में मन को कठोर पहाड़ (महा पाषाण) बताया गया है। सत्संग में आकर गुरु के शबद की ‘टांकी’ अर्थात् चोट पड़ने पर भीतर छिपी कंचन-खान प्रकट होती है। जैसे शिला को छेनी से तराशा जाए, वैसे ही मन को शबद की धार से गढ़ा जाना चाहिए। जब हम अंदर छिपे स्वर्ण जैसे सद्गुणों को प्रकट कर लेते हैं, तब जीवन में प्रकाश भरता है। ऐसा रूपांतरण भक्त के हृदय में प्रेम, सेवा और समर्पण को जन्म देता है। साधक शबद साधना के द्वारा ही कठोर मन में दिव्यता भरता है, बस उसे जगाने की ज़रूरत है।
जून 2025
भावार्थ—जिज्ञासु ने संसार की आसक्ति त्याग दी और सच्चा योगी बन गया। ध्यान में ऐसी धुन लगी कि मन के संकल्प-विकल्प, भ्रम, संदेह और मोह सभी मिट गए। इस अद् भुत अवस्था में ध्यानी की सुरति जो नीचे पिंड देश में रमी हुई थी, वह उलट गई और भृकुटी के मध्य में ब्रह्मांड के ऊपरी मंडल में जा समाई। बस जीव स्वयं ब्रह्म समान हो गया।
अभिप्राय यह है कि एक जिज्ञासु तभी ब्रह्म समान सच्चा योगी बन सकता है जब वह अपने मन के संकल्प-विकल्पों को अपने आप में समाहित कर ले और सुरति को ध्यान में एकाग्र कर ले।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें