संत उदय संतत सुखकारी


संत उदय संतत सुखकारी

सितम्बर 2025

(संत चरणदास जी—वाणी उपदेश)

अथ प्रगट गुरु मिलन वर्णते

 

॥ चौपाई ॥

स्वप्न वचन सुन धरु मन ध्याना ।

रणजीता   आनन्द   समाना ॥

अति भूखे  जनु  न्योता  दीनों ।

नाना व्यंजन ही को चीन्हों

यों  रणजीत  मनहिं  हुलसाने ।

ध्यान  माँहि  शुकदेव  लखाने

इस कविता प्रसंग का विषय गुरु-शिष्य मिलन और उसमें समाहित आध्यात्मिक तत्व है। इसमें संत चरणदास जी द्वारा गुरु शुकदेव मुनि और उनके शिष्य रणजीत जी के मिलन का वर्णन किया गया है। इस काव्य में गुरु की महिमा, शिष्य की विनम्रता और आत्मा की परमात्मा से मिलने की आध्यात्मिक यात्रा को बड़े ही सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है।

स्वप्न वचन और यात्रा का प्रारंभ

पहले रणजीत जी को स्वप्न में गुरु शुकदेव मुनि के दर्शन होते हैं। स्वप्न में सुनाई गई वाणी उनके मन में बैठ जाती है और वे ध्यान में मगन होकर आनंदित होते हैं।

· यहाँ स्वप्न में गुरु के वचनों का ऐसा अनुभव दिया गया है, जैसे भूखे व्यक्ति को स्वादिष्ट भोजन का न्योता।

· जब आत्मा परमात्मा के मार्गदर्शन का अनुभव करती है, तो उसमें गहन संतोष और प्रेरणा उत्पन्न होती है।

॥ दोहा ॥

तहँ सों उठ रणजीत जी, धाये श्री शुकतार ।

गंगा तट शुकदेव मुनि, ब्राजत जहँ सुखसार

॥ चौपाई ॥

जहाँ शुकदेव कथा विस्तारी

परीक्षित हित भागवत उचारी ॥

ताहि सुनाय कियो भवपारा

यातें नाम जु श्री शुकतारा

ठौर पुनीत परम सुखदाई

पूजन जोग ऋषिन मन भाई

कृष्ण भक्ति की देने वारी ।

फल दायक लायक शुभकारी ॥

आये तहाँ रणजीत पियारे

गंगा तट शोभित छवि भारे

॥ छप्पय ॥

श्री शुक्रतार परम पुनीत अति, वन बेलि वक्ष सुहावने ।

जहाँ पवन मंद सुगन्ध शीतल, खग मृग शब्द जु भावने ॥

तहाँ बहत गंगा निकट ही, न्हाय अधम जु बहु तरे ।

विराजत जहाँ शुकदेव मुनि, रणजीत तिन दरशन करें ॥

गंगा तट और शुकदेव मुनि का स्थान

रणजीत जी गंगा तट पर स्थित शुकदेव मुनि के स्थान पर पहुँचते हैं। यहाँ शुकदेव मुनि का वर्णन भक्ति, तप और ज्ञान के केंद्र के रूप में किया गया है।

· गंगा का बहाव, सुगंधित वायु, पक्षियों की चह-चहाहट—यह सब स्थान को पवित्र और ध्यान योग्य बनाते हैं।

· इस स्थान का वर्णन यह बताता है कि सच्चे गुरु का निवास स्थान आत्मा को शांति और मुक्ति का अनुभव कराता है।

शुकदेव मुनि का स्वरूप और आभा

शुकदेव मुनि का स्वरूप अद्वितीय और दिव्य है। उनकी कान्ति नीलमणि के समान दैदीप्यमान है।

· नीलमणि सम दिपत अंग छवि’ में रूपक का प्रयोग किया गया है, जो मुनि के तेजस्वी व्यक्तित्व को दर्शाता है।

· यह दिखाता है कि सच्चे गुरु के दर्शन मात्र से शिष्य को आत्मिक आनंद की प्राप्ति होती है।

॥ दोहा ॥

उच्च टीले पर ब्राजही, व्यास सुवन सुखदैन

रणजीता छवि देख तिन, सुफल किये अप नैन ॥

॥ चौपाई ॥

शोभा वरण सकूँ नहिं जिनकी ।

रूप अद् भुत छवि प्रिय तिनकी

बैठे लघु तरुवर की छाये

भूषण वस्त्रन रहित सुहाये

नव यौवन अंग अंग छबि सोहै

मधुर शरीर साँवरो है

आसन पदम ध्यान छवि छाये

नासा आगे दृष्टि लगाये

शुकदेव जहाँ से दरशाये

साष्टाँग  रणजीत  कराये

दाहिन अंग प्रदक्षिणा धाये

चरण माथ धरि नैन सिराये

 गुरु-शिष्य का मिलन और विनम्रता का प्रदर्शन

रणजीत जी शुकदेव मुनि के समक्ष विनम्रता से साष्टांग प्रणाम करते हैं। उनकी यह भक्ति और श्रद्धा दर्शाती है कि गुरु के प्रति समर्पण ही सच्चा ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग है।

· यह गुरु-शिष्य संबंध वैसा ही है जैसे नदी अपने स्रोत (समुद्र) से मिलने के लिए प्रवाहित होती है।

· विनम्रता और समर्पण ही सच्चे ज्ञान की कुंजी है।

॥ दोहा ॥

जाने मन रणजीत ये, हैं ये त्रिभुवनराय

अथवा कोई परम मुनि, सब सुख इन्हें लखाय ॥

॥ चौपाई ॥

आज्ञा दे हित सों बैठाये

देखि दशा दोउन मुसकाये

पूछा हित कर अप दशा उचारो

कैसे तुम हो रहे दुखारो

गुरु का उपदेश और शिष्य का आत्म-दर्शन

शुकदेव मुनि रणजीत जी के मन की स्थिति को देखकर मुसकराते हैं और उनसे उनकी आत्मिक यात्रा और संघर्षों के बारे में पूछते हैं।

· यहाँ गुरु का मुसकराना यह दर्शाता है कि सच्चा गुरु शिष्य की हर अवस्था को समझता है और उसका सहानुभूति तथा प्रेम से मार्गदर्शन करता है।

· जैसे अंधकार में दीपक रास्ता दिखाता है, वैसे ही गुरु शिष्य के लिए जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

स्थान का आध्यात्मिक महत्व

शुकदेव मुनि का निवास स्थान केवल एक प्राकृतिक स्थल नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक ऊर्जा केंद्र है। वहाँ का हर तत्व शांति और आनंद प्रदान करता है।

· ‘वन बेलि वक्ष सुहावने’ इस स्थल की पवित्रता और सादगी का वर्णन करता है।

· यह स्थान यह संदेश देता है कि साधना और तप का मार्ग पवित्रता और सादगी में ही निहित है।

गुरु की महिमा का व्याख्यान

शुकदेव मुनि के व्यक्तित्व का वर्णन इतना दिव्य है कि उसे शब्दों में बयां करना कठिन है।

· मुनि का ‘सांवरा रूप’ और ‘ध्यान-मग्न मुद्रा’ उनकी आत्मा की शांति और भक्ति को प्रकट करती है।

· यह वर्णन चंद्रमा की शीतलता और सूर्य की शक्ति को एक साथ समाहित करता है।

काव्य का संदेश और प्रेरणा

इस प्रसंग का सार यह है कि सच्चे गुरु का मिलन आत्मा को परम आनंद और शांति प्रदान करता है। गुरु के दर्शन और उपदेश आत्मा को जीवन के सत्य और मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। अर्थात्

1. स्वप्न, ध्यान और गुरु के मार्गदर्शन से आत्मा का परमात्मा से मिलन संभव है।

2. विनम्रता, समर्पण और भक्ति सच्चे ज्ञान का आधार हैं।

3. गुरु-स्थान पवित्रता और साधना का केंद्र होता है।

निष्कर्ष—यह प्रसंग हमें यह सिखाता है कि गुरु-शिष्य का संबंध कितना दिव्य और अनमोल है। योगिराज जिज्ञासु रणजीत जी और शुकदेव मुनि के इस मिलन को ध्यान, भक्ति और साधना का प्रतीक माना जाता है। यह प्रसंग मानव जीवन के परम उद्देश्य—आत्मा और परमात्मा के मिलन की ओर इंगित करता है।

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अगस्त 2025

(संत चरणदास जी—वाणी उपदेश)

( गुरु की खोज ) 

संत वचन सुन रणजीत गुसाईं ।

अपने मन में निश्चय लाई

उनका कहा साँच ही माना

ढूंढ करूँ गुरु यही ठाना

करूँ सिताब गुरू जो पावें

तब वे मोको राम मिलावें

ता दिन से बुद्धि ही पलटाई ।

सतगुरु खोजन चिंत लगाई

कहाँ सतगुरु कैसे कर पाऊँ

जिनसूं अपनी व्यथा सुनाऊँ

सतगुरु मिलें तो कृष्ण मिलावें ।

मो नैनन की जलन बुझावें

सतगुरु बिन कछु और न भावे

घर बाहर कछु नाँहि सुहावे

बढ़ो विरह कछु कहयो न जाई ।

डारो काठ अगनि ज्यों माँहीं

तन व्याकुल मन परे न चैना ।

भूख प्यास नहिं लागे नैना

आतुर  होकर  ढूंढन  लागे ।

सतगुरु मिलन चाह अनुरागे

॥ दोहा ॥

शैव देखि अरु वैष्णव, विरक्त नागों माँहि ।

मत मारग देखे घने, मन अटक्यो कहिं नाहिं ॥

॥ चौपाई ॥

सबको देख देख कर हारे ।

पूरे सतगुरु नाहिं निहारे

साधु संत को शीश नवावें ।

दो अशीस कहिं सतगुरु पावें

दिल्ली ही के बाहर जाकर

फिर बागों ढूंढे हित लाकर

नान्हें भये सवन सों बोलें ।

अरु सब के मत ही को तोलें

चर्चा करि करि भेद निहारें ।

पर काहू को लखें न भारे ॥

तब वहाँ गहरे लेहि उसासें

अपना भेद नहीं परकासें

ऐसा दृष्टि न आवे कोई

श्याम मिलाय हरे दुख सोई

अधिकी तपत उठी मन माँहीं ।

असन बसन तन कछु सुधि नाहीं

॥ दोहा ॥

रात दिवस मन में रहे, सतगुरु ही को ध्यान ।

यही अरज करते रहें, बेगि मिलो सुखदान ॥

चौपाई ॥

कहैं रणजीत विरह दुखदाई ।

कछु न मोहि जग वस्तु सुहाई ॥

मिले सतगुरु मोहि अन्तरजामी ।

तब मो मन पावे विसरामी ॥

क्यों नहिं अरज सुनत गुरु मेरी ।

बालक अबुध शरण हों तेरी ॥

गुरु को बिरह लगो दुखदाई ।

देखि दशा कहि लोग लुगाई ॥

अति सुन्दर यह काको बाला ।

महा जु दुख करि फिरत बिहाला ॥

रणजीता तन सुरति बिसारी ।

कभु पुर वन के फिरें उजारी ||

॥ दोहा ॥

चलते फिरते सोचते, सतगुरु ही को ध्यान ।

जैसे मीना जल बिना, तलफत निशिदिन प्रान ॥

॥ चौपाई ॥

गुरु खोजत दो बरस बिताई ।

उन्नीसवों उम्र लागो आई ||

सतगुरु हित यों वृत्त सजावें ।

इक दिन निरजल इक दिन खावें ॥

पुनि दो दिन निरजल व्रत ठानी ।

तीजे दिन ले अन्न अरु पानी ॥

चार दिनों फिर रह निरधारा ।

पँचवे दिन जल अन्न अहारा ॥

सघत सघत यों साध्यो प्रेमा ।

पखवारे तक निरजल नेमा ॥

गंगा तट जा बैठ रहाए ।

सतगुरु हित चह्यो देह तजाए ॥

करत करत पुनि ऐसो कीनों ।

गंगाजल पी अन्न तज दीनों ॥

तब शुकदेव अनुग्रह छायो ।

ध्यान माँहि आ दरश दिखायो ॥

॥ दोहा ॥

शुकदेव कहि रणजीत सों, शुक्कतार ही स्थान ।

रणजीता तहाँ आइए, प्रगट मिलें सुखदान

उक्त कविता प्रसंग में सन्त चरणदास जी (पूर्व बाल नाम रणजीत जी) की गुरु मिलन विरह का वर्णन है। रणजीत के गुरु की खोज का वर्णन हमें सच्चे गुरु की महत्ता और उसे पाने की गहन जिज्ञासा को समझाता है और यह भी कि सच्ची जिज्ञासा ही सच्चे गुरु के मिलन का एकमात्र उपाय है।

गुरु की खोज की प्रारंभिक प्रेरणा—

रणजीत जी को जब अनेक सत्संगी भक्त और सन्तों ने कहा कि यदि तुम्हें ईश्वर से मिलने की चाह है तो पहले सच्चे गुरु से मिलो। तब इन वचनों को सुनकर उन्होंने अपने मन में सच्चे गुरु को पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया क्योंकि अब उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया था कि सच्चे गुरु के माध्यम से ही उन्हें भगवान राम का साक्षात्कार होगा।

गुरु की खोज में समर्पण और तपस्या—

गुरु की खोज में रणजीत जी ने अपने जीवन को समर्पित कर दिया। उन्होंने पहले विभिन्न धार्मिक तीर्थों की यात्रा की और अनेक साधुओं से मिले परंतु कहीं भी उनकी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। वे आत्मिक शांति को पाने के लिए निरंतर गुरु की खोज करते ही रहे।

मानसिक और शारीरिक त्याग—

गुरु की खोज में रणजीत ने अपने जीवन की समस्त इच्छाओं और सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया। उन्होंने अपने मन में सतगुरु की कल्पना करके ध्यान में बसा ली। इस खोज में भूख-प्यास की परवाह किए बिना वे निरंतर प्रयास रत रहे। उनकी तपस्या ने उनके भीतर सच्चे गुरु की प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा को और अधिक प्रबल कर दिया।

सतगुरु के मिलन की उत्कंठा—

उनकी सतगुरु मिलन के प्रति समर्पण की तीव्रता ने उन्हें दिन-रात सतगुरु के ध्यान में रहने के लिए प्रेरित किया। उनके मन में यह जिज्ञासा बनी रही कि सतगुरु कैसे मिलेंगे, जो उनकी आत्मिक पीड़ा को शांत कर सकें। उनकी स्थिति उस मछली के समान हो गई जो बिना जल के व्याकुल हो रही हो।

सच्चे गुरु की प्राप्ति का संकेत—

दो वर्षों की तपस्या के बाद, रणजीत जी की प्रार्थना और समर्पण से उन्हें मुनि शुकदेव जी के मिलन का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। सच्चे गुरु का दर्शन स्वप्न में हुआ और उन्हें शुकताल (जो मुज़फ्फ़र नगर के पास है) पहुँचने की आज्ञा हुई।

शिक्षा और संदेश—

संत चरणदास जी की इस लीला-वाणी से हमें यह सीख मिलती है कि सच्चे गुरु की प्राप्ति केवल बाहरी साधनों से संभव नहीं होती। इसके लिए धैर्य, तपस्या और सच्चे मन से समर्पण आवश्यक है। सच्चा गुरु हमें आत्मिक ज्ञान की ओर ले जाता है और हमें परमात्मा से मिलन की ओर अग्रसर करता है।

इस प्रकार, यह प्रसंग सच्चे गुरु की खोज   और उसकी प्राप्ति के लिए आवश्यक समर्पण और तपस्या को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है।

संत चरणदास जी को शुकताल पहुँचने का स्वप्न में निर्देश हुआ, यह उनके समर्पण और तपस्या का फल था। यह स्वप्न निर्देश दर्शाता है कि जब एक जिज्ञासु अपने पूरे समर्पण और धैर्य के साथ गुरु की खोज करता है, तो उसे दिव्य मार्गदर्शन प्राप्त होता है।

रणजीत जी ने सच्चे गुरु की प्राप्ति के लिए न केवल बाहरी प्रयास किए, बल्कि अपने भीतर भी एक गहन साधना और तपस्या की। उनके इस समर्पण के परिणाम स्वरूप शुकदेव जी ने उन्हें स्वप्न में शुकताल स्थान पर जाने का निर्देश दिया, जहाँ उन्हें सच्चे गुरु का साक्षात्कार होगा।

यह स्वप्न निर्देश इस बात का प्रतीक है कि जब एक साधक अपने प्रयासों में सच्चा और ईमानदार होता है, तो उसे ईश्वर या गुरु की कृपा से सही मार्गदर्शन प्राप्त होता है। शुकताल स्थान को गुरु की कृपा का केंद्र मानते हुए रणजीत जी ने उस दिशा में अपने कदम बढ़ाए, जो अंततः उन्हें आत्मिक शांति और ज्ञान की ओर ले गया। आगामी अंक में शुकताल पर उनका गुरु शुकदेव जी से मिलन और ज्ञान वार्त्ता का प्रसंग आएगा।

 जून 2025 

(संत चरणदास जी—वाणी उपदेश)

प्रेम विरह—गुरु की खोज

यह सम्पूर्ण पद (वाणी) संत चरणदास जी के उपदेशों में से है, जिसमें एक महान् भक्त (रणजीता) के हृदय में उठी कृष्ण-दर्शन की प्रबल प्यास और गुरु की आवश्यकता को दर्शाया गया है। इसमें प्रेम-विरह की तीव्र व्यथा, संसार से विरक्ति, अंततः सत्संग व गुरु की खोज का महत्व उभरकर सामने आता है।

॥ चौपाई ॥

प्रेम पीर उपजी हिय माँहीं ।

श्याम मिलन एक रही इच्छा ही ॥

बरस बारवें नेम सु छूटा ।

प्रेम अपरबल जगा अनूठा ॥

· इन पंक्तियों में भक्त के हृदय में उठी प्रेम की पीड़ा (विरह-भाव) का उल्लेख है।

· अब बाल भक्त रणजीत के मन में केवल श्रीकृष्ण से मिलने की एकमात्र इच्छा बची हुई है।

· बहुत समय से उसने अनेक व्रत-उपवास या साधन किए, परंतु अब वह किसी भी नियम (नेम) से बँधे नहीं रहे, प्रेम की ऊँची अवस्था में वह सारी औपचारिकताएँ भूल गए।

भरे रहैं जल ही सू नैना ।

विरह तपत से बोलत बैना ॥

जग सूं भये रहैं बैरागी ।

नेह अगनि हिरदे में लागी ॥

घर वाले उसकी दशा को देखकर चिन्तित हो जाते हैं और सोचते हैं कि शायद उसे कोई रोग हो गया है। कोई वैद्य को बुलाने की बात करता है, कोई औषधि कराने की सोचता है। पर भीतर की विरह-वेदना तो कोई सामान्य रोग नहीं, यह तो बल्कि सच्चे प्रेम का रोग है।

॥ दोहा ॥

कबही उठे उसास ही, ता मधि निकसे हाय ।

घात सुने जो प्रेम की, नैनन नीर बहाय

॥ चौपाई ॥

नाना पूछि इन बचन बखानी ।

कहै इनकी वेद न हम जानी

ये हरि दरस प्रेम मतवारे

कहहु कि जो यह निश्चय धारे

जब कोई अनुभवी व्यक्ति देखता है तो समझ जाता है कि यह रोग भौतिक नहीं, बल्कि यह तो हरि दर्शन की लालसा है। भक्त रणजीत के नाना जी ऐसे ही अनुभवी व्यक्ति थे, वे समझ गए कि यह तो हरि दर्शन के मतवाले हो गए हैं। अपने प्रीतम से मिलने की विरह में तड़प रहे हैं।

॥ दोहा ॥

पाँच बरस इहि भाँति ही, बीते प्रेम मँझार ।

यही रही अवसेर  ही, देखूं कृष्ण मुरार

भक्त रणजीत के हृदय में पाँच वर्षों तक यही विरह बना रहा। इस अवस्था में वे सत्संग में जाते हैं तो साधु-संतों से हाथ जोड़कर विनती करते हैं—हे महाराज ! मुझे बताइए कि मेरे प्रीतम श्याम (कृष्ण) से मिलन कैसे होगा ? जिससे मेरी यह विरह-व्यथा शांत हो सके। वे सबके सामने अपनी शंका रखते हैं कि हे संतजनो ! मेरी व्यथा दूर करो।

॥ दोहा ॥

यही भेद मोसूं कहो, मन की शंका जाए ।

जतन करूँ मैं ताहि को, पूरी टेक लगाए ॥

॥ चौपाई ॥

सबने प्रेम दशा पहचानी ।

इनकी आतुरता ही जानी ॥

धन्य धन्य कह करि यों बोले

तुम्हरा देखा प्रेम अतोले

यही जु श्याम मिलावन हारा ।

निश्चय मानों वचन हमारा

और कहो तुम काके बारे

कौन पुरुष हैं गुरू तुम्हारे

सत्संग में भक्त रणजीत की यह प्रेम दशा देखकर सबने मिलकर कहा कि हे बालक ! तुम धन्य हो, यही प्रेम विरह ही तुम को श्याम से मिलाने वाली है। अब यह बताओ कि किसके बालक हो और तुम्हारे गुरु कौन हैं ? 

॥ चौपाई ॥

रोवन में यह उत्तर दीना

अब ताँई हम गुरू न कीना ॥

सब कहे सतगुरु शरणै जावो ।

जिनकी किरपा दरसन पावो

॥ दोहा ॥

गुरु बिन मारग ना मिले, गुरु बिन भरम न जाए

दुर्लभ हरि सतगुरु बिना, गुरु करि पूजो पाएँ

भक्त रणजीत ने रोते हुए यह उत्तर दिया कि अभी तक मैंने गुरु धारण नहीं किया है। यह सुनकर सभी संत और भक्तजन उसे स्पष्ट रूप से समझाने लगे—यदि तुमने अभी तक कोई गुरु नहीं किया है, तो सबसे पहले ‘सद्गुरु’ की शरण में जाओ। यही प्रभु से मिलने का सही उपाय है। भक्ति का असली मार्ग गुरु के बिना स्पष्ट नहीं हो पाता—गुरु ही शिष्य के अज्ञान (भरम) को मिटाकर उसे प्रभु-दर्शन का सीधा मार्ग दिखाते हैं। यही संदेश सब ग्रंथों में दिया गया है कि हरि-दर्शन (ईश्वर-दर्शन) की परम दुर्लभता, एक समर्थ गुरु की कृपा से ही संभव हो पाती है।

भावार्थ व शिक्षा—

1. प्रेम-विरह की महिमा—ईश्वर से अलग होने पर विरह की पीड़ा और उनसे मिलने की लालसा ही सच्ची भक्ति को जन्म देती है। यह विरह सांसारिक सुखों से विरक्ति उत्पन्न करता है और साधक को एकमात्र परमात्मा की ओर उन्मुख करता है।

2. सत्संग का महत्व—जब दुनिया की कोई भी चीज़ या उपचार इस प्रेम-रोग को मिटाने में सक्षम नहीं हो, तब साधक सत्संग का सहारा लेता है। सच्चे संत और प्रेमिजन ही इस व्यथा को समझकर राह दिखा सकते हैं।

3. गुरु की अनिवार्यता—गुरु तत्व के बिना भक्ति का मार्ग स्पष्ट नहीं हो पाता। गुरु अज्ञान का नाश करने वाले, शिष्य को सही साधना व प्रेम की दिशा दिखाने वाले और अंततः ईश्वर-दर्शन तक पहुँचाने वाले हैं।

4. आत्म-समर्पण और धैर्य—पाँच वर्षों तक रणजीता भटकता रहा, प्रेम-विरह को सहता रहा। इससे संकेत मिलता है कि यह मार्ग धैर्य और तत्परता माँगता है। जब व्याकुलता चरम सीमा पर पहुँचती है, तब ही सच्चे गुरु और प्रभु-दर्शन की राह खुलती है।

5. भक्ति का असाधारण रूप—यह कोई बाहरी आडंबर या ढोंग नहीं, बल्कि हृदय में उठने वाली प्रबल पुकार है। सच्ची भक्ति में रोना, उदासी,  मन विकल होना जैसे लक्षण भी पवित्र माने जाते हैं, क्योंकि वे अंत में प्रेम की पूर्णता का द्वार खोलते हैं।

पूरे प्रसंग का मुख्य संदेश यही है कि—

· प्रेम-विरह ईश्वर की खोज का प्रथम सोपान है।

· सत्संग से मार्गदर्शन मिलता है।

· गुरु की कृपा के बिना भक्त को ईश्वर-दर्शन दुर्लभ है

 

गुरु-शिष्य नाता

गुरु बिना ज्ञान न उपजै, गुरु बिना मिले न मोक्ष ।

गुरु बिना लखै न सत्य को, गुरु बिना मिटे न दोष

गुरु और शिष्य का संबंध भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा में अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है। यह संबंध आत्म-ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति का माध्यम है। गुरु वह दिव्य प्रकाश है जो शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को समाप्त कर सत्य, प्रेम और शाश्वत आनन्द का मार्ग दिखाता है।

गुरु शिष्य संबंध का महत्व—

1.ज्ञान का स्त्रोत—गुरु शिष्य को आत्म-बोध और ब्रह्म-ज्ञान की ओर ले जाते हैं। 2.आत्मिक उत्थान—गुरु शिष्य को अपने अहंकार और मोह से मुक्त कर सच्ची आत्म-शक्ति का अनुभव कराते हैं। 3.सद्गति का मार्ग—गुरु के मार्गदर्शन से शिष्य अपने जीवन के सही उद्देश्य को समझ पाता है और आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ता है। 4.संस्कार और शील—गुरु शिष्य के जीवन में अनुशासन, धर्य और समर्पण जैसे गुणों का विकास करते हैं।

जिस प्रकार अंधकार में दीपक हमारा मार्गदर्शन करता है, उसी प्रकार ध्यान और साधना में गुरु हमें आन्तरिक शांति का अनुभव कराते हैं। गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण, आज्ञा का पालन एवं सेवा-भाव से ही शिष्य आत्मिक उन्नति के पथ पर बढ़ता जाता है।



जून 2025 

(संत चरणदास जी)

बालक रणजीत के विवाह का प्रसंग—

यह प्रसंग एक रोचक काव्य में दिया जा रहा है जिसमें श्री चरणदास जी के सच्चे वैराग्य और परमार्थ  भावना का प्राकट्य होता है।

काव्य प्रसंग की व्याख्या—

1. प्रथम भाग—चरणदास जी (महाराज) परिजनों को कहते हैं कि वे कभी विवाह नहीं करेंगे क्योंकि वे जीवनभर भक्ति-भजन और परमार्थ में बिताना चाहते हैं। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि नारी और परिवार के संबंध में बहुत सारी उपाधि और उलझनें हैं जिनमें मैं फँसना नहीं चाहता।

2. दूसरा भाग—चरणदास जी के नाना जी उनकी बात सुनकर मुसकराते हैं और उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं। वे कहते हैं कि नारी और परिवार के बिना जीवन अधूरा है और संतान के बिना कुल का नाम रौशन नहीं होता।

3. तीसरा भाग—नाना जी धर्म शास्त्रों और पुराणों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि सभी प्रमुख देवताओं और भक्तों ने नारी के साथ रहकर ही भक्ति की है। नाना यह समझाते हैं कि नारी जीवन का अभिन्न अंग है और इसके बिना घर और जीवन में कोई स्थायित्व नहीं होता।

4. चौथा भाग—चरणदास जी इस तर्क को सुनकर कुछ झिझकते हैं और नाना से कहते हैं कि वे उन्हें किसी ऋषि के समान समर्थ न जानें। मैं उनके समान योग्य नहीं हूँ।

5. अंतिम भाग—चरणदास जी अंत में कहते हैं कि इस सांसारिक जीवन में सुख कम और दु:ख ज़्यादा हैं। वे नाना से आग्रह करते हैं कि वे उन पर कृपा करें और उन्हें विवाह करने की बात से मुक्त कर दें।

   ॥ चौपाई 

सुनि बोले महाराज तब ही ।
मैं तिरिया ब्याहूँ नहिं कबही ॥
जाकी व्याध बहुत ही लागे ।
मोह उपाध बहुत ही पागे ॥
जो माता मो पर हित कीजे ।
ब्याह करन को नाम न लीजे ॥

रणजीत (चरणदास जी) ने अपनी माता से कहा कि वे कभी विवाह नहीं करेंगे क्योंकि नारी के साथ जुड़ने से बहुत सारी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। नारी (स्त्री) से जुड़ने के साथ अनेक मानसिक और सांसारिक उलझनें आती हैं और वे उन उलझनों से बचना चाहते हैं। इसलिए हे माता ! मेरा विवाह करने का कभी नाम न लेना।

तभी सहज में नाना आही ।
बैठे उतही पलंग बिछाही
सबने कही जु उनसे आके ।
रणजीता के वचन सुना के
सुन के नाना जी मुसकाये
हरिजन प्यारे निकट बुलाये
मन में तो अवतारी जाना
ऊपर  टेढ़ा  बोलन  ठाना ॥
कहो  नार  कैसे  दुखदाई
ब्याह करन में कहा बुराई
नारी से उपजे सुत कोई
कुल में होय उजाला सोई
बिन  संतान  अँधेरा  मानो
ज्यों दीपक बिन मन्दिर जानों ॥
सुन्दर घर सूनो सो लागे
पुत्र बिना कुल चले न आगे
नाम रहै नहिं मुए पाछे
उजड़ जाए कोई कहे न आछे ॥

जब रणजीत के विवाह की चर्चा चल रही थी तभी उनके नाना जी वहाँ आए और सब लोग रणजीत के विचार सुनकर मुसराए। नाना ने समझा कि रणजीत की बातों में एक विशेष प्रकार की बुद्धि और वैराग्य है। फिर भी वे उन्हें अपनी ओर से समझाने का प्रयास करते हैं। नाना ने रणजीत से कहा कि विवाह में क्या बुराई है ? नारी से पुत्र उत्पन्न होता है जो कुल का उजाला बनता है। बिना संतान के जीवन अंधकारमय माना जाता है, जैसे दीपक के बिना मंदिर सूना लगता है।

॥ चौपाई 

धर्म शास्त्र में यही बखानी ।
सभी ऋषिवर नीकी जानी ॥

॥ दोहा ॥

ब्रह्मा विष्णु महेश ही, ईश्वर सब शिरमोर
तीनों के संग नारि है, करि विचार हिय ठोर ॥
सतयुग अरु त्रेता विषे, द्वापर ही के माहिं ।
भक्ति करि नारी सहित, किनहूं त्यागी नाहिं ॥
अरु कलियुग के भक्त ही, लेकर नारी साथ ।

भक्ति करी मुक्ता भए , यही अभी की बात ॥
कबीर भक्त रैदास ही, नरहरि अरु जैदेव ।
नरसी ने गुजरात में, करी भक्ति निरलेव ॥
कालू अरु कूबा भए, सेऊ संमन साथ ।
रंका बंका ही भए, सो जग में विख्यात ॥

॥ चौपाई 

और जगत में यही निहारो ।
देख दृष्टि सों लेउ विचारो ॥

नाना ने रणजीत से कहा कि देखो, धर्म शास्त्रों के अनुसार ही सभी ऋषियों ने विवाह को सही माना है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी पत्नियों सहित हैं और वे इस परंपरा को सत्य मानते हैं। आगे उन्होंने कहा कि सतयुग, त्रेता, और द्वापर युग में भी भक्तों ने नारी के साथ रहकर भक्ति की है और कलियुग में भी ऐसा हो रहा है। नाना ने भक्तमाल से उदाहरण देकर कहा कि भक्त कबीर, रैदास, नरहरि, जैदेव, नरसी, कालू, कूबा, रांका, बांका जैसे कई लोगों ने भी नारी के साथ रहकर भक्ति की और मुक्ति प्राप्त की। अतः इस पर विचार करो और विवाह को स्वीकार करो।

॥ चौपाई 

दुख सुख संग नारी रहै
बिपता पड़े तो मिलि कर सहै ॥

अर्ध शरीर अरु तन सुखदाई ।
आछी जानो करो सगाई
नहिं बरजोरी गोद भराऊँ
मुँदरी  ले  अँगुरी  पहराऊँ
ब्याह करूँ तव हठ नहिं मानूँ ।
बड़े  करें  सोई  परवानूं

नाना ने कहा कि हे वत्स ! नारी के बिना घर सूना होता है, वह सुख-दु:ख में साथ रहती है और जीवन की विपत्तियों को सहने में सहायक होती है। उन्होंने कहा कि नारी आधे शरीर के समान है और विवाह करने से सुख मिलता है।

नाना ने कहा कि मैं ज़बरदस्ती तुम्हें विवाह के लिए नहीं कह रहा हूँ, लेकिन बड़े लोग जो करते हैं वही समाज में मान्य होता है।

दोहा

नाना की सुनि बात ही, चौंके सर्वदयाल ।
सकुचूँ तो बंधन बंधू, पडूं मोह के जाल ॥

॥ चौपाई ॥

शरमाते  धीरज  से  बोले
कहन लगे हृदय की खोले
तुम तो हमरे बड़े कहावो
कहा तिया करि मोहि फँसावो ॥

तुमको तो ऐसा नहिं चहिए ।
हमरी रक्षा ही में रहिए

॥ चौपाई 

जीव अज्ञानी अपनों जाने
झूठे जग को न पहचाने
भव सागर में नेक न सुख है
घना बखेड़ा दुख ही दुख है

॥ दोहा ॥

तुमहू किरपा ही करो, धरो शीश मम हाथ ।
कबहू फिर न चलाइए, ब्याह करन की बात ॥

॥ चौपाई 

हँस कर नाना जब यों कहिया ।
उर से लाए शीश कर धरिया
प्यार किया गोदी बैठारा
धन्य धन्य कहि प्रण तुम्हारा
भाग बड़े ऐसी बुद्धि लाए
हम सुनकर अचरज में आए
जेती हुती सहन में माई
इनकी सुनि मन में हरषाई
सबही  नें  औतारी  जाना ।
धन धन कहा बहुत सुख माना ॥

नाना की बात सुनकर रणजीत (चरणदास जी) चौंके और सोच में पड़ गए कि वे संसार के मोह जाल में कैसे फँस सकते हैं। रणजीत सकुचाते हुए अपने दिल की बात खोलकर कहने लगे कि आप मेरे बड़े हैं, लेकिन मुझे विवाह के जाल में मत फँसाइए। मेरे लिए यही अच्छा है कि मैं इस बंधन से दूर रहूँ।

रणजीत ने कहा कि महान् ऋषियों की तरह मैं समर्थ नहीं हूँ, जो स्त्री के प्रभाव से मुक्त रह सकूँ। मैं एक साधारण और अज्ञानी व्यक्ति हूँ, जो सांसारिक सुख-दु:ख में फँसा हुआ है। उन्होंने अपने नाना से प्रार्थना की कि वे कृपा करके उनके सिर पर हाथ रखें और उन्हें स्वतंत्र रहकर भक्ति करने दें, फिर कभी विवाह की बात न करें।

नाना ने हसकर रणजीत के सिर पर हाथ रखा और उसे प्यार किया। उन्होंने रणजीत की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा की और कहा कि उनका भाग्य बड़ा है जो उन्हें ऐसी बुद्धि मिली है। उनके इस विचार को सुनकर सबने कहा कि वे अवतारी हैं और सभी ने उनकी प्रशंसा की।

 

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