श्री परमहंस अमृत लीला
जून 2025
(श्री द्वितीय पादशाही जी)
॥ एक थानेदार को शिक्षा दी ॥
॥ कविता ॥
एक जिज्ञासु के मन में जिज्ञासा उठी एक बड़ी ।
उच्चारण करें गुरुदेव अपने मुख से यदि गुरुवाणी ॥
तब मानूँगा ये हैं सत्पुरुष स्वयं जगतारण महान ।
अथवा पूर्ण सन्त हैं दयालु दया के सच्चे निधान ॥
या विधि करी वंदना तब पूछ लिया श्री भगवान ।
कि होनहार युवक आप क्या करते हो काम ?
चकित होय आगन्तुक कहा, हे गुण शोभा धाम ।
पद है थानेदार का, वही सरकारी काम ॥
होता जो कारज थानेदार का, काम वही मैं करता हूँ ।
डाकू चोर पकड़ता हूँ, झट कारागार में धरता हूँ ॥
पूछा फिर बतलाओ यदि कर्मचारी कोई सरकारी ।
मिल जाए जो इन्ह लुटेरों से हो करि स्वेच्छाचारी ॥
॥ दोहा ॥
अधिकारी हो कर स्वयं जो, दोष करे प्रचंड ।
बतलाओ तो शीघ्र तुम, क्या दोगे तब दण्ड ?
झट ही ठगे से रह गए, थानेदार सुजान ।
प्रभु ! दंड मिलेगा समान, उसे नियम अनुसार ॥
बोले प्रभु तब—आप भी, लुटेरों के आगू ।
बतलाओ कि कौन दंड, तुम पर हो लागू ?
सुनकर चक्कर खा गए, हे श्री जगतारण ।
मैं पक्का निज धर्म का, अनुचित दोषारोपण ॥
देखो हम प्रकृति के, कार्यकर्ता सरकारी ।
चिताते हैं ठगन संग, करो न भागीदारी ॥
चोरन से मिलो नहीं, वरना पाओगे दंड ।
तभी श्लोक गुरुवाणी, सुना दिए प्रचण्ड ॥
॥ श्लोक ॥
कामि क्रोधि नगरु बहु भरिया ,
मिलि साधु खण्डल खण्डा हे ॥
पूरब लिखत लिखे गुरु पाइआ ,
मनि हरि लिव मण्डल मण्डा हे ॥
करि साधु अंजुली पुंनु बड्डा है ,
करि दण्डौत पुंनि वड्डा हे ॥
अर्थ—यह शरीर काम, क्रोध आदि से भरपूर है। संत जनों से जीव का जब मिलाप होता है तो ये चोर आपस में ही लड़ भिड़ कर, खण्ड-खण्ड हो जाते हैं।
प्रारब्ध में लिखा होता है तो श्री सतगुरु से जीव की भेंट होती है और वह भक्ति-भाव में लवलीन हो जाता है। ऐ प्राणी तू दोनों हाथ जोड़ कर अपने सद् गुरु की वन्दना कर। यह भारी पुण्य कर्म है। तू सद् गुरु को दंड्वत वन्दना कर।
॥ दोहा ॥
सुनि श्लोक गुरुवाणी से, भए चमत्कृत घोर ।
जिज्ञासा पूरी करी, जब सन्तन्ह सिरमौर ॥
चरण-कमल गहि प्रभु कै, बोले थानेदार ।
हे सतगुरु बख़्शन्द जी ! विनती करो स्वीकार ॥
तब श्री गुरुदेव ने, बख़्शा नाम का दान ।
अति विभोर होए कर, करि चले गुणगान ॥
ज्योत प्रकाश घट अन्तरि, गुरु किया उजियार ।
गहे चरण रज निज मस्तक पर, तब पावै कछु सार ॥
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें