क्रियात्मक भजन-अभ्यास

 क्रियात्मक भजन-अभ्यास 

(गाइडिड मेडिटेशन)


सितम्बर 2025

सहजो नौका नाम है, चढ़ि के उतरौ पार ।
नाम सुमिर जान्यो नहीं, ते डूबे मंझधार 

संसार एक सागर के समान है, यह सागर मनुष्य के आगे मन के रूप में है। इससे पार जाने के लिए प्रभु-नाम एक नौका है, इस पर चढ़ो और पार उतर लो अन्यथा प्रभु नाम भुला देने से तो डूबना तय है। 

नाम-सुमिरण और भजन-अभ्यास के लिए प्रारंभिक निर्देश श्रवण कर मन को एकाग्र कीजिए—

· सबसे पहले एक शांत और अबाधित स्थान चुनें। सुखासन या पद्मासन में बैठें। दोनों आँखें कोमलता से बंद करें।

· सम्पूर्ण शरीर को ढीला छोड़ दें, अब अपनी स्वांसों की गति पर ध्यान केंद्रित करें।

1. दृढ़ संकल्प—प्रिय गुरमुखो ! इन अमृत पलों को नाम-सुमिरण के लिए समर्पित करें। दृढ़ संकल्प के साथ अन्य सभी विचारों को मन से दूर रखने का आदेश दें।

2. नाम मंत्र का जाप—सुजान साधको ! उक्त वाणी में वर्णित ‘नाम’ मंत्र को बार-बार दोहराना शुरू कर दें। नाम मंत्र को बार-बार दोहराना ही भजन-अभ्यास है।

3. मन की चंचलता—यह स्वाभाविक है कि मन भटकने लगेगा क्योंकि यह उसकी प्रकृति है। हमने साधना के द्वारा इस चंचल प्रकृति को बदलकर स्थिर व शांत प्रकृति बनाना है।

4. जब मन बाहर के अन्य विषय पर जाए तभी धीरे से उसे नाम मंत्र के जप में लगाएँ। बार-बार अभ्यास करते रहने से मन धीरे-धीरे एकाग्र होने लगेगा।

5. जन्म का उद्देश्य—याद रखें, यह मानव जीवन हमें नाम-जप के लिए मिला है। यह हमारा जन्मजात अधिकार और कर्तव्य भी है।

6. नाम का महत्व—नाम ही वह अमृत है जो जीवन को अर्थ देता है। यह ही वह पूंजी है जो हमारे साथ हमेशा रहेगी।

7. अंतर्मन की यात्रा—मन रूपी सागर से पार जाने अर्थात् इसे शांत व स्थिर करने के लिए नाम जपना जारी रखें। यह अपने ही अंतर्मन की यात्रा दृढ़ता से तय करनी है।

8. विचारों का प्रवाह—विचारों को आने दें, लेकिन उनमें उलझें नहीं। बस उन्हें निष्क्रिय दर्शक की तरह देखें और फिर ध्यान को नाम मंत्र पर केंद्रित करें।

9. सकारात्मक भावनाएँ—नाम जप के साथ-साथ सकारात्मक भावनाओं को भी विकसित करें। प्रेम, करुणा, क्षमा जैसे गुणों को अपने हृदय में जागृत करें।

10.  अंत—धीरे-धीरे जाप की गति को कम करें और फिर आँखें खोलें। कुछ पल शांत बैठें और इस अनुभव को महसूस करें।

अगस्त 2025

दोहा

सुंदर अंदर पैठि कर, दिल में गोता मार ।
तो दिल ही में पाइए, साईं सिरजनहार

           संत सुंदरदास जी भजन-अभ्यास की युक्ति वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि यदि अपने प्रियतम के दिव्य रूप का दर्शन करना है तो दिल में अर्थात् घट भीतर गोता लगाओ, तब वह सिरजनहार प्रभु अंदर ही मिल जाएँगे।

प्रिय साधको !

· इस क्रियात्मक भजन-अभ्यास में हम आत्म-चिंतन और भीतर के परमात्मा की खोज का मार्ग अपनाएंगे। संत सुंदरदास जी कहते हैं कि अपने दिल में उतरकर ही सच्चे ईश्वर का अनुभव किया जा सकता है। यह परमात्मा बाहरी जगत् में नहीं, बल्कि हमारे हृदय के भीतर विद्यमान है।

 · भीतर की ओर यात्रा आरंभ करें—प्रिय जिज्ञासु ! अपने भीतर की ओर यात्रा आरंभ करने के लिए, पहले अपने ध्यान को अंदर की ओर मोड़ें। संत रविदास जी बताते हैं कि जैसे ही हम अपने प्रियतम का दर्शन करते हैं, हमारे हृदय में अपार प्रकाश फैल जाता है और मन आनंदित हो जाता है।

· स्वांसों पर ध्यान दें—हे साधकगण ! इस दिव्य यात्रा की शुरुआत आपकी स्वांसों की गति पर ध्यान देने से होगी। अपनी स्वांसों को विशेष रूप से देखना ही विपश्यना ध्यान है। जब आप अपनी  स्वांसों पर ध्यान केंद्रित करेंगे, तो एक प्राकृतिक मंत्र ध्वनि का अनुभव होगा। यह ध्वनि आपकी सुरति को ऊपर उठाने में सहायक होगी।

· अजपा-जप का अभ्यास—प्रिय साधकगण ! अब हम अजपा-जप का अभ्यास करेंगे। आप सब एक आरामदायक आसन में बैठ जाएँ और अपने मन को इस जप में एकाग्र करें। इस अभ्यास में स्वांस, शब्द और सुरति को एक साथ लाना होगा।

· दृढ़ संकल्प लें—प्रिय जिज्ञासुओ ! आप सब दृढ़ संकल्प लें कि इस अभ्यास को नियमित रूप से करेंगे और जीवन के अंतिम स्वांस तक इसे जारी रखेंगे। यही अभ्यास आपको भीतर के दिव्य आनंद और शांति की ओर ले जाएगा।

· निष्कर्ष—हे प्रिय साधक मंडली ! यह भजन-अभ्यास आत्म-विकास और परम शांति की प्राप्ति का मार्ग है। इसके अभ्यास से आप अपने भीतर ही परमात्मा का अनुभव कर सकेंगे। अभ्यास ही सब कुछ है। अभ्यास से ही महान् आनंद की अनुभूति प्राप्त कर सकेंगे। अब, प्रसन्नतापूर्ण मन से इस दिव्य यात्रा में आगे बढ़ने के लिए तत्पर हो जाइए और सुमिरण का अभ्यास एकाग्रता से जारी कर दीजिए।



जुलाई 2025

सकल बिआपी सुरति में, मन पवना गहि राख ।
रोम-रोम धुनि होत है, सतगुरु बोले साख 
                       (संत गरीबदास जी)
गुरुमुख सज्जनो ! आज हम अपनी भीतरी यात्रा का आरंभ करने जा रहे हैं।  हमारी सुरति बाहर बहुत भटक ली। अब समय आ गया है कि हम अपनी काया के भीतर वह अनमोल मणि खोजें, जिसका प्रकाश असीम आनंद दे सकता है।
· सबसे पहले हम अपने सद् गुरु को स्मरण करते हैं, जो हमारे भीतर के अंधकार को मिटाने वाले हैं।
· अपनी दोनों आँखें कोमलता से बंद कर लें और गुरुदेव को हृदय-मंदिर में विराजमान करें।
· अनुभव करें कि गुरुदेव एक दिव्य ज्योति के समान हैं, जिनकी प्रकाश-रश्मियाँ आपके अंतर्मन को प्रकाशित कर रही हैं।
· अब धीरे-धीरे अपनी चेतना को दोनों नेत्रों के मध्य, ऊपर हृदय स्थल पर ले आइए।
· मन की समस्त वृत्तियों को प्राण पवन में उठने वाली धुनि में रमण करने दें।
· जब भी कोई विचार आपको भटकाने लगे, उसे मणि–दीपक रूपी गुरुदेव की पावन छवि में देखते हुए जाने दीजिए।
· फिर से अपनी चेतना गुरुदेव के स्मरण और हृदय-कमल के प्रकाश पर ले आइए।
· भीतर का प्रकाश धीरे-धीरे संपूर्ण पिंड और ब्रह्मंड में व्याप्त होता हुआ महसूस करें।
· इस प्रकाश में आप हर प्रकार की नकारात्मकता को जलती हुई देखें और उसकी राख बाहर उड़कर लुप्त होती हुई देखें।
· कुछ समय तक इस दिव्य आनंद में डूबकर स्थिर रहें। जब आप आँखें खोलें, तो अपने भीतर की शांति और प्रकाश को बाहर भी महसूस करते रहें।
· यही भीतरी यात्रा का आरंभ है; इसे नित्य जारी रखें। धीरे-धीरे यह प्रकाश आपके जीवन को अभूतपूर्व सुख-शांति से भर देगा।



जून 2025

गगन मंडल पिअ रूप सों, कोट भान उजियार ।
रविदास मगन मनुआ भया, पिया निहार-निहार

· संत रविदास जी भजन-अभ्यास की परम आनन्द अवस्था का वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि अपने प्रियतम के दिव्य रूप का दर्शन मैंने अपने ही घट भीतर किया है।

वह परमात्मा कहीं बाहर नहीं है, उसका निवास एकमात्र अपने ही घट भीतर अंतर्मन में है। अतः· उसकी खोज भी अंतर्मन में ही करनी चाहिए। आगे संत रविदास जी कहते हैं कि उस परम प्रियतम का दर्शन करते ही मेरे हृदय आकाश में करोड़ों सूर्यों के प्रकाश के समान प्रकाश हो गया और उसे देखकर मन मग्न हो गया अर्थात् महान् परम आनन्द सब ओर छा गया तथा मन की समस्त व्यथा मिट गई।

· गुरुमुख साधक मंडली ! गुरु रविदास जी के द्वारा वर्णन किया गया दिव्य मंडल और दिव्य स्थान हमारे अपने भीतर घट में ही विद्यमान है, इसको पाने के लिए कहीं ऊपर के आकाश में जाने की आवश्यकता नहीं।

· अब घट भीतर के दिव्य गगन मंडल में पहुँचने की यात्रा आरंभ हो रही है। यह अति महान् और परम कल्याणकारी मंगलमय यात्रा है। अतः प्रसन्नतापूर्ण मन से इस दिव्य यात्रा के लिए तत्पर हो जाए

· यह आंतरिक यात्रा हमारी काया में संचालित स्वांसों से आरंभ होती है, हमें अपनी स्वांसों की गति को विशेष रूप से देखना है, स्वांसों को विशेष रूप से देखना विपश्यना ध्यान है। यही सत्य का सीधा अनुभव कराता है।

· स्मरण रहे कि जैसे ही हम अपन स्वांसों की विशेष ध्वनि को सुनेंगे तो इसमें एक प्राकृतिक मंत्र ध्वनि उठती हुई अनुभव होगी। इस ध्वनि के सहारे अपनी सुरति को ऊपर उठाना है।  

· इस अमृतवेला में यही महान् कार्य सिद्ध करने के लिए अथवा आंतरिक यात्रा आरंभ करने के लिए सब साधक एकत्र हुए हैं। अतः स्वांस, शब्द और सुरति को एक बनाने का अजपा जाप अभ्यास करना है।

अभ्यास के लिए एक अडोल सुख आसन में बैठकर बड़ी ही रुचिपूर्वक उक्त अजपा जाप में संलग्न हो जाइए। यह अभ्यास नित्य और निरंतर करते रहें और दृढ़ संकल्प कर लें कि मैं अपने जीवन के अंतिम स्वांस तक यह अभ्यास जारी रखूँगा।  


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें