बुद्धपुरुषों के जीवन प्रसंग
( गुरु वशिष्ठोपदेश )
गुरु वशिष्ठ जी ने शम की महिमा का वर्णन करते हुए इसे मोक्ष का प्रथम द्वारपाल बताया है। शम का अर्थ केवल बाहरी शांति नहीं, बल्कि आंतरिक चित्त की वह अवस्था है, जहाँ जीव सभी प्रकार की भ्रांतियों, विकारों और अशांति से मुक्त हो जाता है। शम—शील, क्षमा और आत्म-संयम के गुणों का संग्रह है। यह लेख शम की महत्ता और उसके माध्यम से जीव के मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर विस्तार से प्रकाश डालता है।
शम का अर्थ है चित्त की स्थिरता और परम शांति। गुरु वशिष्ठ जी कहते हैं—
शमेनासाद्यते श्रेयः शमो हि परमं पदम् ।
शमः शिवः शमः शान्तिः शमो भ्रान्ति निवारणम् ॥
अर्थात् शम से जीव कल्याण को प्राप्त करता है। शम ही परम पद है, शम ही शिव है तथा शम ही भ्रांति का निवारण है।
प्राचीन काल में एक राजा था, जिसे अपने राज्य की शक्ति और समृद्धि पर बहुत अभिमान था। एक बार, उसने सुना कि उसके राज्य में एक तपस्वी रहते हैं, जिनके शील और क्षमा के गुणों की चर्चा चारों ओर है। राजा ने उन्हें आज़माने का निश्चय किया।
एक दिन, वह अपने सैनिकों के साथ जंगल में पहुँचा, जहाँ तपस्वी एक वृक्ष के नीचे ध्यान मगन थे। राजा ने तपस्वी को परेशान करने के लिए उन्हें कठोर शब्द कहे और उनके तप की आलोचना की। लेकिन तपस्वी ने अपनी आँखें नहीं खोलीं और शांत चित्त बैठे रहे।
राजा ने सैनिकों को आदेश दिया कि तपस्वी के पास रखे उनके जल-पात्र और आसन को हटा दें। फिर भी तपस्वी के चेहरे पर कोई क्रोध या दु:ख नहीं दिखा। राजा ने और अधिक कठोर व्यवहार किया—तपस्वी को अपमानित करने के लिए उनके वस्त्रों को फाड़ने का भी प्रयास किया।
तपस्वी ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं और मुसकराते हुए राजा से कहा, हे राजन् ! आप जो चाहें कर सकते हैं, लेकिन मेरे चित्त को अशांत नहीं कर सकते। शम और शील मेरी शक्ति हैं, जो बाहरी आघातों से प्रभावित नहीं होते।
यह सुनकर राजा क्रोधित हो गया और बोला, क्या तुममें कोई स्वाभिमान नहीं ? क्या तुम्हें अपमान का अनुभव नहीं होता ?
तपस्वी ने उत्तर दिया, स्वाभिमान तभी आहत होता है, जब मन में अभिमान हो और अपमान तभी महसूस होता है, जब व्यक्ति दूसरों की बातों से प्रभावित हो। लेकिन जो शम को प्राप्त कर चुका है, उसका मन शांत झील के समान होता है। वहाँ कोई भी पत्थर फेंके, झील की गहराई में उसकी शांति नहीं टूटती।
राजा ने यह सुनकर अपनी भूल समझी। उसने तपस्वी से क्षमा माँगी और कहा, हे महात्मा ! आप वास्तव में महान् हैं। कृपया मुझे शील और क्षमा का महत्व सिखाएँ।
तपस्वी ने कहा, शील और क्षमा का अभ्यास वही कर सकता है, जो अपने अहंकार और क्रोध की अग्नि को बुझा सके। शम से मन शुद्ध होता है, शील से जीवन पवित्र होता है और क्षमा से हृदय विशाल बनता है। यही जीवन का सार है।
राजा ने तपस्वी के चरणों में शीश झुकाया और प्रतिज्ञा की कि वह अपने जीवन में शील, शम और क्षमा के गुणों को अपनाएगा।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि शम और शील के गुण केवल साधु-संतों तक सीमित नहीं हैं। यदि हम इन्हें अपने जीवन में उतारें, तो हमारे भीतर शांति और सच्चा आनंद स्थापित हो सकता है। बाहरी परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, शम और शील का अभ्यास हमें आत्मिक शांति की ओर ले जाता है।
शील और शीलवान व्यक्ति को दर्शाने के लिए कई तरह की उपमाएँ दी जाती हैं। ये उपमाएँ न केवल शील के महत्व को उजागर करती हैं बल्कि शीलवान व्यक्ति के गुणों को भी सटीक ढंग से व्यक्त करती हैं। यहाँ कुछ उपमाएँ दी गई हैं—
· शील कमल के समान है—जैसे कमल कीचड़ में रहते हुए भी निष्कलंक रहता है, वैसे ही शीलवान व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी अपने गुणों को नहीं खोता है।
· शीलवान व्यक्ति दीपक के समान है—जैसे दीपक अंधकार में प्रकाश फैलाता है, वैसे ही शीलवान व्यक्ति समाज में शांति का प्रकाश फैलाता है।
· शीलवान व्यक्ति चंदन के समान है—जैसे चंदन को जितना पानी के साथ अधिक घिसा जाता है, उतना ही सुगंध और रंग देता है। वैसे ही शीलवान व्यक्ति कठिन संघर्षों में और अधिक निखरता जाता है।
· शीलवान व्यक्ति वृक्ष के समान है—जैसे वृक्ष अपनी जड़ों से मज़बूती पाता है, वैसे ही शीलवान व्यक्ति अपने मूल्यों से मज़बूती पाता है।
· शीलवान व्यक्ति सूर्य के समान है—जैसे सूर्य सभी को प्रकाश और ऊर्जा देता है, वैसे ही शीलवान व्यक्ति सभी को प्रेरणा देता है।
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जुलाई 2025
( गुरु वशिष्ठोपदेश )
शमः परमं सुखम्—
उक्त वचन गुरु वशिष्ठ जी के वचन हैं, वे कहते हैं कि शील ही परम सुख है। शम के साथ जुड़े हैं—शांति, संतुलन, संयम और मधुरता। अब इन वचनों का व्याख्यान पढ़िए—
1. शांति का सागर—वह सागर जिसमें शांति का जल भरा है और परम सुख की लहरें उठ रही हैं।
उपमा—जिस प्रकार अथाह सागर अपनी गहराइयों में शांत रहता है, बाहर ऊँची-ऊँची लहरें उठती-गिरती रहती हैं, फिर भी उसकी अंतरात्मा में एक स्थिरता विद्यमान होती है। उसी तरह मन की गहराई में जब शांति होती है, तो बाहरी जीवन की हलचलें हमें विचलित नहीं कर पातीं। गुरु वशिष्ठोपदेश के अनुसार, शम यानी मन की शांत और स्थिर अवस्था ही सच्चा सुख है। यदि मन अशांत हो, तो चाहे हमारे पास कितना भी वैभव और साधन हो, हमें वास्तविक आनंद नहीं मिल सकता। अतः शम के बिना जीवन में कुछ सार नहीं रह जाता। गुरु वशिष्ठ जी इसी शम में स्थित होने का उपदेश कर रहे हैं।
2.संतुलन की सरिता—अंतर्मुखी साधना का शांत प्रवाह है।
उपमा—जैसे शांत नदी धीर-गंभीर बहती है, किन्तु अपने प्रवाह में अवरोध आने पर भी वह अंततः अपने मार्ग को पा लेती है। उसी तरह मन को साधना, ध्यान, प्राणायाम और योग का आश्रय देकर अनुशासित किया जा सकता है। यह अनुशासन हमें सकारात्मक चिंतन की ओर प्रवृत्त करता है और मन को स्थिरता प्रदान करता है। साधना की ‘सरिता’ जीवन की भाग-दौड़ के बीच मन को भीतर से पोषित करती है, जिससे मानसिक शांति बनी रहती है।
3. संयम—क्षमा और मन की शीतलता है।
उपमा—यदि हम अपने मनोभावों के प्रति सजग हों, तो संयम की शीतल बूँद क्रोध आदि के अग्निकुंड की लपटों को शांत कर देती है। शांति और धैर्य के साथ विचार करने पर निर्णय अधिक कल्याणकारी सिद्ध होते हैं। इस प्रकार नकारात्मक भावों का नियंत्रण हमें शम के निकट पहुँचाता है।
4. मधुरता—सुगंधित पुष्पों की तरह कोमल भाव का प्राकट्य है।
उपमा—जिस प्रकार सुगंधित बगिया में खिले हुए फूल वातावरण को सुगंध से भर देते हैं, उसी तरह शांत मन पारस्परिक संबंधों में माधुर्य भरता है। जब मन स्थिर और सकारात्मक होता है, तो हम अपने परिवार, मित्रों और समाज से सहजता से जुड़ पाते हैं। निर्णय भी अधिक परिपक्व और सहानुभूति पूर्ण होते हैं। मन की यह ‘बगिया’ दूसरों के लिए भी उत्साह व आनंद का स्रोत बनती है, क्योंकि शांत मन से निकलने वाला प्रेम सकारात्मक होता है—वह दूसरों को भी प्रभावित करता है।
जैसे अमृत की एक बूँद सम्पूर्ण प्राणी को अमरता का अनुभव करा सकती है, वैसे ही शम और शांति की एक झलक भी हमारे समूचे अस्तित्व में आनंद भर देती है।
अमृत की एक बूँद सम्पूर्ण प्राणी को अमरता का अनुभव करा सकती है, यह उक्ति हमारे शास्त्रों और पौराणिक कथाओं में बार-बार दोहराई गई है। अमृत शब्द मात्र से ही मन में एक दिव्य रस की अनुभूति जाग उठती है, जो मृत्यु के भय से परे ले जाकर हमें एक विशेष तरह के निःशब्द आनंद से भर देती है। यही भाव, यही उत्कंठा तब और भी गहरी हो जाती है जब हम शांति और शम की महत्ता को आत्मसात करते हैं। मन को स्थिर करना, इंद्रियों को संयमित रखना और अंतर्मुखी होकर शांत-चित्त अनुभव करना ही वह सौम्य क्रिया है, जिसे शम कहा जा सकता है।
बाहरी कलह, अंतहीन इच्छाओं और भटकाव से निकलकर जब मन शम के मार्ग पर अग्रसर होता है, तभी शांति का अवतरण होता है। जिस प्रकार एक बूँद अमृत के स्पर्श से समस्त विकारों का नाश हो जाता है, उसी प्रकार शांति की एक झलक भी भीतर छिपे क्लेश, क्रोध और तनाव की परतों को ध्वस्त कर देती है।
शांति, केवल बाहरी विपरीत परिस्थितियों का अभाव भर नहीं है; वह एक आंतरिक दशा है, जिसमें मन प्रसन्न और संतुलित रहता है। जीवन के विविध संघर्षों के बीच जब हम अपने भीतरी स्वरूप से जुड़ते हैं, तब हमें समझ आता है कि हमारी वास्तविक शक्ति भौतिक संसाधनों के बजाय हमारी मानसिक और आत्मिक स्थिति में निहित है।
शम हमें यही सिखाता है कि किसी भी परिस्थिति में संतुलन बनाए रखना और अपने भीतर की दिव्यता से जुड़े रहना संभव है। जैसे विकट समस्याओं का सामना करने के लिए एक छोटा-सा आश्वासन भी बड़ा संबल बन जाता है, वैसे ही शांति की अल्प उपस्थिति भी हमारा आंतरिक बल प्रबल कर देती है। इसके सहारे हम जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सहजता से टिके रहकर, सम्यक् विचारों से कार्य कर पाते हैं।
जब मन शांत हो, तो हमें अपनी ही गहराइयों में झाँककर देखने का अवसर मिलता है। यह प्रक्रिया आत्म-निरीक्षण और आत्म-परिवर्तन की राह खोलती है। भीतरी शांति का भाव जब हमारे विचारों में प्रवेश करता है, तब हर क्रिया में सौम्यता और विवेक का समावेश होने लगता है। हम अपनी प्राथमिकताओं को समझने लगते हैं तथा भौतिक आकर्षणों से परे उस वास्तविक आनंद को अनुभव करते हैं जो प्रेम, करुणा और सरलता से उत्पन्न होता है।
जून 2025
(गुरु वशिष्ठोपदेश)
राजा बलि-उपाख्यान—
हे धर्मध्वज राम ! राजा बलि के हृदय में ऐसा ही कभी विचार आया था, फलस्वरूप उसको भी संसार से विरक्ति और उस विरक्ति के कारण आत्म-पद की प्राप्ति हुई थी। उसकी कथा इस प्रकार है—हे वत्स ! पाताल लोक में किसी समय राजा विरोचन का पुत्र राजा बलि राज्य करता था। वह महाप्रतापी राजा था। उसने अपने बाहुबल से देवताओं और दानवों को परास्त करके अपना साम्राज्य चारों ओर फैला लिया था। जब उसको राज्य करते-करते बहुत वर्ष बीत गए तो एक दिन उसके मन में विचार आया कि मैं चिरकाल से त्रिलोकी का राज्य भोग रहा हूँ, किन्तु मेरे चित्त को कभी शान्ति नहीं मिली। बार-बार वे ही भोग भोगता हूँ, परन्तु इनसे कभी भी मुझे परम तृप्ति नहीं मिली। दिन-प्रतिदिन वे ही काम करता रहता हूँ जिनको करने से आत्मा का कुछ भी कल्याण होता दिखलाई नहीं देता। सारा जीवन इन्हीं भोगों को भोगते हुए व्यतीत हो गया, किन्तु हाथ कुछ नहीं लगा।
यह कहकर असुर गुरु शुक्राचार्य जी चले गए। तदुपरान्त राजा बलि ने घर आकर विचार करना आरम्भ किया और विचार करते-करते उसको यह दृढ़ निश्चय हो गया कि संसार में जो कुछ है वह सब ‘चित्’ तथ्य ही है, इसके अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। ऐसा सोचते-सोचते उसे निर्विकल्प समाधि लग गई और उस समाधि में उसे आत्म-तत्व और शुद्ध परम आनन्द का अनुभव हुआ। वह आनन्द ऐसा था कि जिसकी तुलना में उसके सारे जीवन के भोगों का सुख भी नहीं था। बहुत दिनों तक वह समाधि में बैठा रहा तो राज्य कार्यों में विघ्न आने लगे।
राजा बलि की यह कथा सुनाकर गुरु वशिष्ठ जी राम जी से बोले, हे प्रज्ञावान् राम जी ! तुम भी इसी प्रकार आत्म चिंतन करके उस परम पद का अनुभव करो। फिर यह सम्पूर्ण जगत् और इसका प्रपंच तुम्हारे लिए एक खेलमात्र रह जाएगा और दु:ख-सुख आदि द्वंद्वों से परे होकर संसार में विचरण करोगे और जग कल्याण करते रहोगे।
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